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________________ ने भी आचारांग में स्पष्ट शब्दों में कहा-"समियाए धम्मे पारियेहि पवेइए"-पार्यों ने समत्व भाव को धर्म कहा है। भाषाशास्त्र की दृष्टि से धर्म शब्द 'ध' धातु से निर्मित है, जिसका अर्थ है-धारण करना / यात्मा का धर्म है सद्गुणों को धारण करना / ये सद्गुण बाहर से लाये नहीं जाते, वे विभाव के हटते ही स्वतः प्रकट हो जाते हैं। उदाहरण के रूप में अग्नि के संयोग के हटते ही पानी स्वतः शीतल हो जाता है। धर्म के लिए अधर्म को छोड़ना होता है, विभाव को दूर करना होता है। जैसे-बादल के हटने पर सूर्य का चमचमाता हुया प्रकाश प्रकट हो जाता है, वैसे ही अधर्म के बादल छंटते ही धर्म का दिव्य आलोक जगममा पड़ता है। धर्म ऊपर से प्रारोपित नहीं होता और जो आरोपित है, वह अधर्म है / उस अधर्म ने ही मानव में धर्म के प्रति घृणा पैदा को / धर्म का दम्भ अधार्मिकता से भी अधिक भयावह है। क्योंकि इसमें अधर्म को छिपाने के लिए ढोंग किया जाता है। वञ्चना है / धर्म से प्राकुलता-व्याकुलता नष्ट होकर निर्मलता प्राप्त होती है। धर्म के दो प्रकार : श्रुतधर्म और चारित्रधर्म धर्म के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए स्थानांग में धर्म के दो भेद बताये हैं -श्रुतधर्म और चारित्रधर्म / ये दोनों धर्म मोक्ष रूपी रथ के चक्र हैं। श्रतधर्म से धर्म का सही स्वरूप समझा जाता है, सही स्वरूप समझा जाता है, इसलिए चारित्रधर्म से पूर्व उसका उल्लेख किया गया है / यहाँ हम चारित्रधर्म का विश्लेषण न कर श्रुतधर्म पर चिन्तन करेंगे। श्रुतधर्म पर चिन्तन करने से पूर्व श्रृत शब्द को जानना आवश्यक है। सामान्यतः श्रुत का अर्थ है-सुनना / क्योंकि: श्रु' धातु से श्रुत शब्द निष्पन्न हया है। पूज्यपाद ने लिखा है-श्रुत-ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर निरूप्यमान पदार्थ जिसके द्वारा सुना जाता है, जो सुनना या सुनाना मात्र है, वह श्रुत है' / प्राचार्य अकलंक ने भी यही अर्थ 'तत्त्वार्थराजवातिक' में प्रस्तुत किया है। पूज्यपाद ने यह स्पष्ट किया है कि 'श्रुत शब्द' शब्द सुनने रूप अर्थ का मुख्य रूप से प्रतिपादक होने पर भी वह ज्ञान विशेष में ही रूढ है। केवलमात्र कानों से सुना गया शब्द ही श्रुत नहीं है। जैन दार्शनिकों को मुख्य रूप से श्रुत से ज्ञान अर्थ ही इष्ट है, पर उपचार से श्रुत का शब्दात्मक होना भी उन्हें ग्राह्य है। विस्तार में न जाकर संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर मन और इन्द्रिय की सहायता से अपने में नियत अर्थ को प्रतिपादन करने में 3. प्राचारांग-११८२ 4. दुविहे धम्मे पन्नत्ते, तंजहा---सूयधम्मे चेव, चरित्तधम्मे चेव / -स्थानांग. स्थान 2, उ. 1. 5. सदावरणकर्मक्षयोपशमे सति निरूप्यमाणं श्रूयते अनेन श्रृणोति श्रवणमानं वा श्रुतम् / / -सर्वा. सि.(१९), पु-६६ 6. श्रुतशब्दः कर्मसाधनश्च / 2 / किंच पूर्वोक्तविषयसाधनश्चेति वर्तते / श्रुतावरणक्षयोपशमाद्यन्तरंग-बहिरंग हेतुसन्निधाने सति श्रूयतेस्मेति श्रुतम् / कर्तरि श्रुतपरिणत प्रात्मैव शृणोतीति श्रुतम् / भेदविवक्षायां श्रूयतेऽ नेनेति श्रुतम् , श्रवणमात्र वा। -(त. बा. [19 / 2]) 7. श्रुतशब्दोऽयं श्रवणमुपादाय व्युत्पादितोऽपि रूढिवशात् कस्मिश्चिज्ज्ञानविशेषे वर्तते / -सर्वा. सि. (1120), पृष्ठ-८३ 8. ................... - ज्ञानमित्यनुवर्तनात् / श्रवणं हि श्रुतज्ञानं न पुनः शब्दमात्रकम् ॥–त. श्लो. वा. क. (32 / 0 / 20), पृष्ठ-५९८ [16] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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