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________________ समर्थ ज्ञान श्रुतज्ञान है। प्राकृत 'सुय' शब्द के संस्कृत में चार रूप होते है---श्रत, सूत्र, सूक्त (सुत्त) और स्यूत / प्राचार्यों ने इन रूपों के अनुसार इनकी व्याख्या की है। प्राचार्य अभयदेव ने श्रत का अर्थ किया है-'द्वादश अंगशास्त्र अथवा जोवादि तत्त्वों का परिज्ञान'।१० __ जैसे सूत्र में माला के मनके पिरोये हए होते हैं उसी प्रकार जिसमें अनेक प्रकार के अर्थ प्रोत-प्रोत होते हैं, वह सूत्र है। जिसके द्वारा अर्थ सूचित होता है वह सूत्र है। जैसे—प्रसुप्त मानव के पास यदि कोई वार्तालाप करता है पर निद्राधीन होने के कारण वह वार्तालाप के भाव से अपरिचित रहता है, वैसे ही विना व्याख्या पड़े जिसका बोध न हो सके, वह सूत्र है। अपर शब्दों में यों कह सकते हैं जिसके द्वारा अर्थ जाना जाय अथवा जिसके प्राश्रय से अर्थ का स्मरण किया जाय या अर्थ जिसके साथ अनुस्यूत हो, वह सूत्र है।" इस प्रकार श्रुत या सूत्र का स्वाध्याय करना, श्रत के द्वारा जीवादि तत्त्वों और पदार्थों का यथार्थ स्वरूप जानना श्रुतधर्म है। श्रुतधर्म के भेद श्रुतधर्म के भी दो प्रकार हैं-सूत्ररूप श्रुतधर्म और अर्थरूप श्रुतधर्म / 12 अनुयोगद्वार सूत्र में श्रुत के द्रव्यश्रुत और भावश्रुत ये दो प्रकार बताये हैं / जो पत्र या पुस्तक पर लिखा हुआ है वह 'द्रव्यश्रुत' है और जिसे पढ़ने पर साधक उपयोगयुक्त होता है वह 'भाबश्रुत' है। श्रतज्ञान का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहा गया है-जैसे सूत्र-धागा पिरोई हुई सुई गुम हो जाने पर भी पुनः मिल जाती है, क्योंकि धागा उसके साथ है; वैसे ही सूत्रज्ञान रूप धागे से जुड़ा हुआ व्यक्ति प्रात्मज्ञान से वंचित नहीं होता / प्रात्मज्ञान युक्त होने से वह संसार में परिभ्रमण नहीं करता। नन्दीसूत्र में श्रुत के दो प्रकार बताये हैं-सम्यक्श्रुत और मिथ्याश्रुत / वहाँ पर सम्यक्श्रुत और मिथ्याश्रुत की सूची भी दी है और अन्त में स्पष्ट रूप से लिखा है--"सम्यक्श्रुत कहलाने वाले शास्त्र भी मिथ्यादष्टि के हाथों में पड़कर मिथ्यात्व बुद्धि से परिग्रहीत होने के कारण मिथ्याश्रुत बन जाते हैं। इसके विपरीत मिथ्याश्रुत कहलाने वाले शास्त्र सम्यग्दृष्टि के हाथों में पड़कर सम्यक्त्व से परिगृहीत होने के कारण सम्यक-श्रुत बन जाते है।"१३ 9. इंदियमणोणिमित्तं जं विण्णाणं सुताणुसारेणं / गिप्रयत्थुत्ति समत्थं तं भावसुतं मतो सेसं / -विशे प्रा. भा. (भा. 5), गा. 99 10. दुर्गतौ प्रपततो जीवान रुणद्धि, सूगतौ च तान धारयतीति धर्मः / श्रुतं द्वादशांगं तदेब धर्मः श्रुतधर्मः / ___ --स्थानांगवृत्ति 11. सूत्यन्ते सूच्यन्ते वाऽर्था अनेनेति सूत्रम् / सुस्थितत्वेन व्यापित्वेन च सृष्ठूक्तत्वाद् वा सूक्त, सुप्तमिव वा सुस्तम् / सिंचति क्षरति यस्मादर्थं तस्मात् सूत्रं निरुक्तविधिना वा सूचयति श्रवति श्रूयते; स्मयते वा येनार्थः / -स्थानांगवृत्ति 12. सुयधम्मे दुविहे पण्णत्ते तंजहा—सुत्तसुयधम्मे चेव अत्थसुयधम्मे चेव / - स्थानांग, स्था. 2 13. एमाई मिच्छादिठिस्स मिच्छत्तपरिम्गहियाई मिच्छासुयं / एआई चेव सम्मदिस्सि सम्मत्तमरिग्गहियाई सम्मसुयं / / --नन्दीसूत्र-श्रुतज्ञान प्रकरण [17] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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