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________________ चिन्तन बन्द हो जाता है, अतः मन नहीं, प्राण प्रात्मा है। चिन्तन आगे बढ़ा और उन्हें यह भी मालूम हुआ कि प्राण नाशवान् है, परन्तु प्रात्मा तो शाश्वत है। शरीर, इन्द्रिय, मन और प्राण ये भौतिक है, किन्तु अात्मा प्रभौतिक है। चार्वाकदर्शन को छोड़कर भारत के सभी दर्शन प्रात्मा के अस्तित्व में विश्वास करते हैं / न्याय और वैशेषिक दर्शन का मन्तव्य है-पात्मा अविनश्वर और नित्य है। इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान उसके विशेष गुण हैं। प्रात्मा ज्ञाता, कर्ता और भोक्ता है / ज्ञान, अनुभूति और संकल्प प्रात्मा के धर्म हैं। चैतन्य प्रात्मा वरूप है। मीमांसा दर्शन का भी यही अभिमत हैं। वह प्रात्मा को नित्य और विभ मानता है / चैतन्य को आत्मा का निजगुण नहीं किन्तु आगन्तुक गुण मानता है। स्वप्नरहित गाढ निद्रा में तथा मोक्ष की अवस्था में प्रात्मा चैतन्य गुणों से रहित होता है। सांख्य दर्शन ने पुरुष को नित्य, विभु तथा चैतन्य स्वरूप माना है / सांख्य दृष्टि से चैतन्य प्रात्मा का आगन्तुक गुण नहीं है, वह निजगुण है। पुरुष अकर्ता है / वह स्वयं सुख-दुःख की अनुभूतियों से रहित है। बुद्धि कर्ता है और वही सुख-दुःख का अनुभव करती है। बुद्धि का उपादान कारण प्रकृति है / प्रकृति प्रतिपल-प्रतिक्षण क्रियाशील है / इसके विपरीत पुरुष विशुद्ध चैतन्य स्वरूप है / अद्वैत वेदान्त आत्मा को विशुद्ध सत् , चित् और ग्रानन्द स्वरूप मानता है। सांख्य दर्शन ने अनेक पुरुषों (आत्माओं) को माना है, पर ईश्वर को नहीं माना। जबकि वेदान्त दर्शन केवल एक ही प्रात्मा को सत्य मानता है। बौद्ध दर्शन की दृष्टि से प्रात्मा ज्ञान, अनुभूति और संकल्पों की प्रतिक्षण परिवर्तन होने वाली सन्तति है। इसके विपरीत जैन दर्शन का वज्राघोप है-आत्मा नित्य, अजर और अमर है। ज्ञान प्रात्मा का मुख्य गुण है। आत्मा स्वभाव से अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त शक्ति से सम्पन्न है। राजा प्रदेशी जीव और शरीर को एक मानता था। उसकी मान्यता के पीछे अपना अनुभव था। उसने अनेकों बार परीक्षण कर देखा तस्करों और अपराधियों को सन्दूक में बन्द कर या उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर जीव को देखने का प्रयत्न किया कि कहीं प्रात्मा का दर्शन हो, पर आत्मा अरूपी होने के कारण उसे दिखाई कैसे दे सकता था ? जब आत्मा दिखाई नहीं दिया तो उसे अपना मत सही ज्ञात हुआ कि जीव और शरीर अभिन्न हैं। किन्तु उसके सभी तर्कों का केशी कूमारश्रमण ने इस प्रकार रूपकों के माध्यम से निरसन किया कि राजा प्रदेशी को प्रात्मा और शरीर पृथक्-पृथक स्वीकार करने पड़े। - स्वर्ग और नरक से जीव क्यों नहीं पाकर कहते हैं कि हमने प्रबल पुण्य की प्राराधना की जिसके फलस्वरूप में देव बना हूँ, मैंने पापकृत्य किया जिसके कारण मैं नरक में दारुण वेदनामों को भोग रहा हूँ, इसलिए मैं तुम्हें कहता है कि तुम पाप से बचो और पुण्य उपार्जन की ओर लगो। यदि स्वर्ग और नरक होता तो मेरे पिता, प्रपितामह वहाँ गये होंगे, वे अवश्य ही पाकर मुझे चेतावनी देते। प्रत्युत्तर में केशी श्रमण ने कहाकामुक व्यक्ति हो, जिसने तुम्हारी पत्नी के साथ दुराचार किया हो, और तुमने उसे प्राणदण्ड की सजा दी हो, वह अपने पारिवारिक जनों को सूचना देने के लिए जाना चाहे तो क्या तुम उसे मुक्त करोगे? नहीं, वैसे ही नरक से जीब मुक्त नहीं हो पाते, जो पाकर तुम्हें सूचना दें और स्वर्ग के जीव इसलिए नहीं पाते कि यहाँ पर गन्दगी है। कल्पना करो अपने शरीर को स्वच्छ बनाकर और सुगन्धित द्रव्यों को लेकर तुम देवालय की ओर जा रहे हो, उस समय शौचालय में बैठा हुअा कोई व्यक्ति तुम्हें वहाँ बुलाए तो क्या तुम उस गन्दे स्थान में जाना पसन्द करोगे? नहीं। वैसे ही देव भी यहाँ आना पसन्द नहीं करते हैं। - राजा प्रदेशी और केशी का यह संवाद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। केशी श्रमण की युक्तियाँ इतनी गजब की हैं कि आज भी पाठकों के लिए प्रेरणादायी ही नहीं अपितु प्रात्म-स्वरूप को समझने के लिए सर्चलाइट की तरह [ 36 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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