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________________ पाता। यही कारण है कि किसी ने प्रात्मा को शरीर माना, किसी ने बुद्धि कहा, किसी ने इन्द्रिय और मन को ही प्रात्मा समझा तो कितनों ने इन सबसे पृथक पात्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार किया। ग्रात्मा के अस्तित्व की संसिद्धि स्वसंवेदन से होती है। इस संसार में जितने भी प्राणी हैं, वे अपने आपको सुखी-दुःखी, धनवान्-निर्धन अनुभव करते हैं / यह अनुभूति चेतन प्रात्मा को ही होती है, जड़ को नहीं। आत्मा अमूर्त है। किन्तु अनात्मवादियों की धारणा है कि घट-पट आदि पदार्थ जैसे प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, उसी तरह आत्मा प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता और जो प्रत्यक्ष से सिद्ध नहीं है, उसकी सिद्धि अनुमान प्रमाण से भी नहीं हो सकती, क्योंकि अनुमान का हेतु प्रत्यक्षगम्य होना चाहिए, जैसे अग्नि का अविनाभावी हेतु धूम प्रत्यक्षगम्य है। हम भोजनशाला में उसे प्रत्यक्ष देखते हैं, इसलिए दूसरे स्थान पर भी धुएँ को देखकर स्मरण के बल पर परोक्ष अग्नि को अनुमान से जान लेते हैं। किन्तु प्रात्मा का इस प्रकार का कोई अविनाभावी पदार्थ पहले नहीं देखा / इसीलिए प्रात्मा का अस्तित्व प्रत्यक्ष और अनुमान से सिद्ध नहीं है। प्रत्यक्ष से सिद्ध न होने के कारण चार्वाक दर्शन ने आत्मा को स्वतंत्र द्रव्य नहीं माना। भूतसमुदाय से विज्ञानघन उत्पन्न होता है और भूतों के नष्ट होने पर वह भी नष्ट हो जाता है / परलोक या पुनर्जन्म नहीं है / किसी-किसी का यह मन्तव्य था कि शरीर ही प्रात्मा है। शरीर से भिन्न कोई आत्मा नामक तत्त्व नहीं है। यदि शरीर से भिन्न प्रात्मा हो तो मृत्यु के पश्चात् स्वजन और परिजनों के स्नेह से पुनः लौटकर क्यों नहीं पाता ? इसलिए इन्द्रियातीत कोई आत्मा नहीं है, शरीर ही आत्मा है। इसके उत्तर में प्रात्मवादियों का कथन है कि प्रात्मा है या नहीं, यह संशय जड़ को नहीं होता। यह चेतन तत्त्व को ही हो सकता है। यह मेरा शरीर है, इसमें जो 'मेरा' शब्द है वह सिद्ध करता है कि 'मैं' शरीर से पृथक है / जो शरीर से पृथक् है, वह आत्मा है। जड पदार्थ में किसी का विधान या निषेध करने का सामर्थ्य नहीं होता। यदि जड़ शरीर से भिन्न का अस्तित्व न हो तो प्रात्मा का निषेध कौन करता है ? स्पष्ट है कि प्रात्मा का निषेध करने वाला स्वयं आत्मा ही है। प्राचार्य देवसेन ने प्रात्मा के ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, चेतनत्व, अमूर्तत्व ये छह गुण बताये हैं।१४३ आचार्य नेमिचन्द्र ने जीव को उपयोगमय, अमूत्तिक, कर्ता, स्वदेहपरिमाण, भोक्ता, ऊर्ध्वगमनशील कहा है / 144 जहाँ पर उपयोग है, वहाँ पर जीवत्व है। उपयोग के अभाव में जीवत्व रह नहीं सकता। उपयोग या ज्ञान जीव का ऐसा लक्षण है जो सांसारिक और मुक्त सभी में पाया जाता है। छान्दोग्योपनिषद् में एक सुन्दर प्रसंग है२४५...-असुरों में से 'विरोचन' और देवों में से 'इन्द्र' ये दोनों आत्म-स्वरूप को जानने के लिए प्रजापति के पास पहुँचे / प्रजापति ने एक शान्त सरोवर में उन्हें देखने को कहा और पूछा-क्या देख रहे हो? विरोचन और इन्द्र ने कहा-हम अपना प्रतिबिम्ब देख रहे हैं / प्रजापति ने बताया-बस वही प्रात्मा है। विरोचन को समाधान हो गया और वह चल दिया। पर इन्द्र चिन्तन के महासागर में गहराई से डुबकी लगाने लगे। इन्द्रिय और शरीर का संचालक मन है, अतः उन्होंने पहले मन को प्रात्मा माना, उसके बाद सोचा-मन भी जब तक प्राण हैं तभी तक रहता है। प्राण पखेरू उड़ने पर मन का 143. पालापपद्धति, प्रथम गुच्छक, पृष्ठ-१६५-६१ 144. द्रव्यसंग्रह-१२ 145. छान्दोग्योपनिषद-८-८ [ 35] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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