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________________ सूर्याभदेव द्वारा नत्य-गान-वादन का आदेश] [49 ७७–तत्पश्चात् अर्थात् एक सौ आठ देव कुमारों और देवकुमारियों की विकुर्वणा करने के पश्चात् उस सूर्याभदेव ने एक सौ आठ शंखों की और एक सौ पाठ शंखवादकों को विकुर्वणा की / इसी प्रकार से एक सौ पाठ-एक सौ पाठ शृगों-रणसिंगों और उनके वादकों-बजाने वालों की, शंखिकाओं (छोटे शंखों) और उनके वादकों की, खरमुखियों और उनके वादकों की, पेयों और उनके वादकों की पिरिपिरिकाओं और उनके वादकों की विकुर्वणा की। इस तरह कुल मिलाकर उनपचास प्रकार के वाद्यों और उनके बजाने वालों की विकुर्वणा की। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में पिरिपिरिका पर्यन्त वाद्यों के नामों का उल्लेख है। शेष के नाम यथास्थान आगे के सूत्र में आये हैं वे इस प्रकार हैं 1. शंख 2. शृंग (रणसिंगा) 3. शंखिका (छोटे शंख), 4. खरमुखी 5. पेया 6. पिरिपिरिका 7. पणव-ढोल, 8 पटह-नगाड़ा, 9. भंभा, 10. होरम्भ, 11. भेरी, 12. झालर, 13. दुन्दुभि, 14. मुरज, 15. मृदंग, 16. नन्दीमृदंग, 17, प्रालिंग, 18 कुस्तुबा, 16. गोमुखी, 20. मादला 21. वीणा, 22. विपंची, 23. वल्लकी, 24. षड्भ्रामरी वीणा, 25. भ्रामरी वीणा, 26. बध्वीसा, 27. परिवादिनी वीणा, 28. सुघोषाघंटा, 26. नन्दीघोष घंटा, 30. सौतार की वीणा, 31 काछवी वीणा, 32, चित्र वीणा, 33. आमोट, 34. झंझा, 35. नकुल 36. तूण, 37. तुबवीणा-तम्बूरा, 38. मुकुन्द-मुरज सरीखा एक वाद्य विशेष, 36 हडक्क 40 विचिक्की 41. करटी 42. डिडिम, 43. किणिक, 44. कडंब, 45 दर्दर, 46. दर्दरिका, 47. कलशिका 48. मडक्क, 49 तल, 50. ताल 51. कांस्य ताल, 52. रिंगरिसिका 53. लत्तिका, 54. मकरिका 55. शिशुमारिका, 56. वाली, 57. वेणु, 58. परिली 59. बद्धक / यद्यपि मूल सूत्रपाठ में वाद्यों की संख्या उनपचास बताई है, परन्तु गणना करने पर उनकी या उनसठ होती है। टीकाकार ने इसका समाधान इस प्रकार किया है-मुलभेदापेक्षया प्रातोद्यभेदा एकोनपञ्चाशत्, शेषास्तु एतेषु एव अन्तर्भवन्ति यथा वंशातोद्यविधाने वाली-वेणु-परिली-बद्धगा इति-अर्थात् वाद्यों के मूल भेद तो उनपचास ही हैं। शेष उनके अवान्तरभेद हैं, जैसे कि वंशवाद्यों में वाली, वेणु, परिली, बद्धग आदि का अन्तर्भाव हो जाता है। ___ ऊपर दिये गये वाद्य नामों में से कुछ एक के नाम स्पष्ट ज्ञात नहीं होते हैं कि वर्तमान में उनकी क्या संज्ञा है? टीकाकार प्राचार्य ने भी लोकगम्य कहकर इनकी व्याख्या नहीं की है'अव्याख्यातास्तु भेदा लोकतः प्रत्येतव्याः।' सूर्याभदेव द्वारा नृत्य-गान-वादन का आदेश: ७८-तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारियाओ य सद्दावेति / तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीयो य सरियाभेणं देवेणं सदाविया सवाणा हट्ट जाव (तुद चित्तमाणंदिया) जेणेव सूरियामे देवे तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता सरियाभ देवं करयलपरिगहियं जाव (सिरसावत्तं मत्थए अलि कट्ट, जएणं विजएणं बद्धाति) वद्धावित्ता एवं वयासी-'संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! जं अम्हेंहि कायव्वं / ' ७८-तत्पश्चात् सूर्याभ देव ने उन देवकुमारों तथा देवकुमारियों को बुलाया / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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