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________________ 106 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र इमेयारूवमझस्थियं जाव समुध्यन्नं समभिजाणित्ता जेणेव सरियाभे देवे तेणेव उवागच्छंति, सरियाभं देवं करयल-परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु जएणं विजएणं वद्धाविन्ति, बद्धावित्ता एवं वयासी एवं खलु दवाणुप्पियाणं सूरियाभे विमाणे सिद्धायतणंसि जिणपडिमाणं जिणुस्सेहपमाणमित्ताणं अट्ठसयं संनिक्खित्तं चिट्ठति, सभाए णं सुहम्माए माणवए चेइयखंभे वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु बहूमो जिणसकहाम्रो संनिक्खित्तानो चिट्ठति, तानो णं देवाणुप्पियाणं अणेसि च बहूर्ण वेमाणियाणं देवाणं य देवीण य प्रच्चणिज्जापो जाव पज्जवासणिज्जायो। तं एयं णं देवाणुप्पियाणं पुटिव करणिज्ज, तं एवं गं देवाणुप्पियाणं पच्छा करणिज्जं। तं एवं गं देवाणुपियाणं पुदिव सेयं, तं एयं णं देवाणुप्पियाणं पच्छा सेयं / तं एयं णं देवाणुप्पियाणं पुचि पि पच्छा वि हियाए, सुहाए, खमाए, निस्सेयसाए, आणुगामियत्ताए भविस्सति / १८७–तत्पश्चात् उस सूर्याभदेव की सामानिक परिषद् के देव सूर्याभदेव के इस अान्तरिक विचार यावत् उत्पन्न संकल्प को अच्छी तरह से जानकर सूर्याभदेव के पास आये और उन्होंने दोनों हाथ जोड़ आवर्त पूर्वक मस्तक पर अंजलि करके जय-विजय शब्दों से सूर्याभदेव को अभिनन्दन करके इस प्रकार कहा आप देवानुप्रिय के सूर्याभविमान स्थित सिद्धायतन में जिनोत्सेधप्रमाण वाली एक सौ पाठ जिन-प्रतिमायें विराजमान हैं तथा सुधर्मा सभा के माणवक-चैत्यस्तम्भ में वज्ररत्नमय गोल समुद्गकों (डिब्बों) में बहुत-सी जिन-अस्थियाँ व्यवस्थित रूप से रखी हुई हैं / वे आप देवानुप्रिय तथा दूसरे भी बहुत से वैमानिक देवों एवं देवियों के लिये अर्चनीय यावत् पर्युपासनीय हैं। अतएव प्राप देवानुप्रिय के लिये उनकी पर्युपासना करने रूप कार्य पहले करने योग्य है और यही कार्य पीछे करने योग्य है / आप देवानुप्रिय के लिये यह पहले भी श्रेय-रूप है और बाद में भी यही श्रेय रूप है / यही कार्य आप देवानुप्रिय के लिए पहले और पीछे भी हितकर, सुखप्रद, क्षेमकर, कल्याणकर एवं परम्परा से सुख का साधन रूप होगा / १८८-तए णं से सरियामे देवे तेसि सामाणियपरिसोववन्न गाणं देवाणं अंतिए एयमटुं सोच्चा-निसम्म हट्ठ-तुट्ठ जाव (चित्तमादिए-पीइमणे-परमसोमणस्सिए-हरिसवसविसष्पमाण) हयहियए सयणिज्जानो अब्भुट्ठति, सयणिज्जाप्रो अभुत्ता उववायसभाम्रो पुरथिमिल्लेणं दारेणं निग्गच्छइ, जेणेय हरए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता हरयं अणपयाहिणीकरेमाणे-अणुपयाहिणी-करेमाणे पुरथिमिलेणं तोरणेणं अणुपविसइ, अणुपविसत्ता पुरथिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता जलावगाहं जलमज्जणं करेइ, करित्ता जलकिड्डं करेइ, करिता जलाभिसेयं करेइ, करित्ता प्रायंते चोक्खे परमसइभूए हरयानो पच्चोत्तरइ, पच्चोत्तरित्ता जेणेव अभिसेयसभा तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छिता अभिसेयसभं अणुपयाहिणीकरेमाणे अणुपयाहिणीकरेमाणे पुरस्थिमिलेणं दारेणं अणुपावसइ, अणुपविसित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छत्ता सोहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सन्निसन्ने / १८८-तत्पश्चात् वह सूर्याभदेव उन सामानिकपरिषदोपगत देवों से इस अर्थ–बात को सुनकर और हृदय में अवधारित-मनन कर हर्षित, संतुष्ट यावत् (चित्त में प्रानन्दित, अनुरागी, परम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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