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________________ सूर्याभदेव द्वारा जम्बूद्वीप दर्शन ] [ 11 ६-आमलकल्पा के बाहर स्थित ग्राम्रशालवन चैत्य में स्वामी-श्रमण भगवान महावीर पधारे / वंदना करने परिषद् निकली। राजा भी यावत् (हजारों दर्शकों की सहस्रों नेत्रमालाओं द्वारा बार-बार निरीक्षित होता हुआ, हजारों मनुष्यों के हृदयसहस्रों द्वारा पुनः पुनः अभिनंदित होता हमा, हजारों जनों की मनोरथों रूपी मालासहस्रों द्वारा स्पर्शित-स्पृष्ट होता हआ, सुन्दर और उदार वचनावली-सहस्रों द्वारा बारंबार स्तुत-स्तुतिगान किया जाता हुअा, शारीरिक ओज-सौन्दर्य, लावण्य दिव्य सौभाग्य और गुणों के कारण जनपद के द्वारा प्रार्थित होता हुआ, हजारों नर-नारियों की अंजलि रूप मालासहस्रों को दाहिने हाथ से स्वीकार करता हुआ, मंजुल मधुर स्वरों द्वारा किये गये जय-जय घोषों से प्रतिबोधित-संबोधित होता हुअा एवं हजारों भवन-पंक्तियों को पार करता हुआ आमलकल्पा नगरी के बीचोंबीच से होकर निकला, निकल कर पाम्रशालवन चैत्य की ओर चला और श्रमण भगवान् महावीर से न अतिदूर और न अति समीप किन्तु यथायोग्य स्थान से तीर्थंकरों के अतिशय रूप छत्र-पर-छत्र और पताकाओं-पर-पताका आदि को देखा, देखकर प्राभिषेक्य हस्तिरत्न को रुकवाया / रोक कर प्राभिषेक्य हस्तिरत्न से नीचे उतरा। उतर कर (1) खड्ग-तलवार, (2) छत्र, (3) मुकूट, (4) उपानह-जूता और (5) चामर इन पांच राजचिह्नों का परित्याग किया परित्याग करके जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ पाया। आकर पाँच अभिगम करके श्रमण भगवान् महावीर के सन्मुख पहुँचा / वे पाँच अभिगम इस प्रकार हैं (1) पुष्प माला आदि सचित्त द्रव्यों का त्याग, (1) वस्त्र आदि अचित्त द्रव्यों का अत्याग-त्याग नहीं करना, (3) एक शाटिका (अखंड वस्त्र-दुपट्टा) का उत्तरासंग, (4) भगवान् पर दृष्टि पड़ते ही अंजलि करना—दोनों हाथ जोड़ना, (5) मन को एकाग्र करना। इन पाँचों अभिगमपूर्वक सम्मुख पाकर श्रमण भगवान् महावीर की प्रादक्षिण-दक्षिण दिशा से प्रारंभ करके तीन वार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वंदन नमस्कार किया। वन्दन, नमस्कार करके त्रिविध-तीन प्रकार की पर्युपासना से प्रभु की उपासना करने लगा।) विवेचन--'तिविहाए पज्जुवासणयाए पज्जुवासइ' तीन प्रकार को पर्युपासना से उपासना करने लगा / सेवा, भक्ति करने को पर्युपासना करते हैं / सेवाभक्ति श्रद्धा प्रधान है और श्रद्धा की अभिव्यक्ति के तीन साधन हैं-मन, वचन और काय / अतएव श्रद्धा की परम स्थिति को प्राप्त के लिए इन तीनों में तादात्म्य-एकरूपता होना आवश्यक है। इसी दृष्टि से सूत्र में 'तिविहाए' तीनों प्रकार से उपासना करने का उल्लेख किया है। कायिक अंग प्रत्यंगों को सम्मान प्रगट करने वाली चेष्टा कायिक उपासना, वक्ता के कथन का समर्थन करना वाचिक उपासना तथा मन को केन्द्रित करके कथन को सुनना और अनुमोदन करते हुए स्वीकार करना मानसिक उपासना कहलाती है / सूर्याभदेव द्वारा जम्बूद्वीप दर्शन : ७-तेणं कालेणं तेणं समएणं सूरियामे देवे सोहम्मे कप्पे सूरियाभे विमाणे सभाए सुहम्माए सूरियाभंसि सिंहासणंसि चहिं सामाणियसाहस्सीहि, चहिं अग्गमहिसीहि सपरिवाराहि, तिहि परिसाहि, सहि प्रणिहि, सहि प्रणियाहिवईहिं, सोलसहि प्रायरक्खदेवसाहस्सोहिं, अन्नेहि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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