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________________ 10] [ राजप्रश्नीयसूत्र कुडलों से घर्षित होती रहती थी। उसका मुखमंडल चंद्रिका के समान निर्मल और सौम्य था, अथवा कार्तिकी पूर्णिमा के चन्द्र के समान विमल परिपूर्ण और सौम्य था। उसका सुन्दर वेष मानो शंगार रस का स्थान था। उसकी चाल, हासपरिहास, संलाप-बोलचाल, भाषण, शारीरिक और नेत्रों की चेष्टायें आदि सभी संगत थीं। वह पारस्परिक वार्तालाप करने में निपुण थी, कुशल थी, उचित प्रादर, सेवा शुश्रूषा आदि करने में कुशल थी। उसके सुन्दर जघन-कमर से नीचे का भाग, स्तन मुख, हाथ, पैर, लावण्य-विलास से युक्त थे। और दर्शकों के चित्त में प्रसन्नता उत्पन्न करने वाली, दर्शनीय रूपवती और अतीव रूपवती थी। और बह सेय राजा में अनुरक्ता, अविरिक्ता होकर पाँचों इन्द्रियों के इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, वर्ण, एवं गंध रूप मनुष्योचित काम-भोगों का अनुभव करती हुई समय व्यतीत करती थी। विवेचन-पानी से लबालब भरे हुए कुड में पुरुष या स्त्री के बिठाने पर एक द्रोण (प्राचीन नाप) प्रमाण पानी छलककर बाहर निकले तो वह बैठने वाली स्त्री अथवा पुरुष मान-संगत कहलाता है / तराजू पर तोलने पर यदि अर्धभार प्रमाण तुले तो वह उन्मान-संगत और अपने अंगुल से एक सौ आठ अंगुल ऊंचाई हो तो वह प्रमाण-संगत कहलाता है। __ जैन परिभाषा के अनुसार शब्द और रूप ये दो काम में और गंध, रस एवं स्पर्श भोग में ग्रहण किये जाते हैं। दोनों का समावेश करने के लिये 'काम भोग' शब्द का उपयोग किया जाता है / भगवान का पदार्पण और राजा का दर्शनार्थ गमन : ६-सामी समोसढे। परिसा निग्गया। राया जाव [नयणमालासहस्सेहि पेच्छिज्जमाणे पेच्छिज्जमाणे हिययमाला-सहस्सेहि अमिणदिज्जमाणे-अभिणंदिज्जमाणे, मणोरहमालासहस्सेहि विच्छिष्पमाणे विच्छिष्पमाणे, क्यणमालासहस्सेहि अभिथुव्वमाणे अभिब्वमाणे, कंति-दिव्य-सोहग्गगुणेहि पथिज्जमाणे पत्थिज्जमाणे बहूणं नरनारोसहस्साणं दाहिणहत्येण अंर्जालमालासहस्साई. पहिच्छमाणे-पडिच्छमाणे, मंजुमंजुणा घोसेणं पडिबुज्झमाणे-पडिबुज्झमाणे, भवणपतिसहस्साई समइच्छमाणे समइच्छमाणे प्रामलकप्पाए नयरीए मझमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छिता जेणेव अंबसालवणचेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिना समणस्स भगवनो महावीरस्स अदूर-सामंते छत्ताईए तित्थयराइसेसे पासइ, पासित्ता आभिसेक्कं हथिरयणं ठवेइ, ठवित्ता प्राभिसेक्कामो हस्थिरयणाप्रो पच्चोरुहइ, पच्चोरुहिता अवहटु पंच रायकउहाई तंजहा-खग्गं छत्तं उप्फेसं वाहणाप्रो वालवीयणं; जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ उबागच्छिता समणं भगवं महावीर पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ, तंजहा (1) सचित्ताणं दवाणं विओसरणयाए, (2) अचित्ताणं दव्वाणं प्रवियोसरणयाए, (3) एगसाडियं उत्तरासंगकरणेणं, (4) चक्खुप्फासे अंजलिपग्गहेणं, (5) मणसो एगत्तभावकरणेणं / समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो प्रायाहिण-पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता तिविहाए पज्जुवासणयाए] पज्जुवासइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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