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________________ सूर्याभदेव द्वारा भगवान की स्तुति ] [ 13 इन्द्र प्रादि देवों को किसो का भय नहीं होता कि आत्मरक्षकों की आवश्यकता हो, मगर यह भी इन्द्र का एक वैभव है। सूर्याभ देव द्वारा भगवान की स्तुति : ८-तत्थ समणं भगवं महावीरं जंबुद्दीवे भारहे वासे प्रामलकप्पाए नगरीए बहिया अंबसालवणे चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणं पासति, पासित्ता हट्ठतुट्ठ चित्तमाणदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवस विसप्पमाणहियए विकसियवरकमलणयणे पलियवरक डग-तुडिय-के ऊर-मउड-कुडलहारविरायंतरइयवच्छे, पालंबपलबमाणघोलंतभूसणधरे ससंभमं तुरियं चवलं सुरवरे सोहासणाश्रो अन्भुट्ठ इ, अब्भुद्वित्ता पायपीढानो पच्चोरुहति, पच्चोरुहित्ता पाउयाग्रो प्रोमुयइ, प्रोमयइत्ता एगसाडियं उत्तरासंगं करेति, करित्ता तित्थयराभिमुहे सत्तट्ठपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छिता वाम जाणु अंचेइ, दाहिणं जाणु धरणि-तलंसि निहटु तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि निमेइ, निमित्ता ईसि पच्चुन्नमइ पच्चुन्नमित्ता कडय-तुडियथंभिभुयानो साहरइ साहरित्ता करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंर्जाल कटु एवं वयासी-- उस समय अर्थात् विपुल अवधि ज्ञानोपयोग द्वारा जम्बूद्वीप के दर्शन में प्रवर्तमान होने के समय उसने जम्बद्रीप के भरत क्षेत्र में आमलकल्पा नगरी के बाहर अाम्रशालवन चैत्य में यथा प्रतिरूप अवग्रह ग्रहण कर-साधु के लिये उचित स्थान की याचना करके संयम और तर से प्रात्मा को भावित करते हुए श्रमण भगवान् महावीर को देखा। देखकर वह हर्षित और अत्यन्त सन्तुष्ट हुआ, उसका चित्त आनंदित हो उठा / मन में प्रीति उत्पन्न हुई, अतीव सौमनस्य को प्राप्त हुना, हर्षातिरेक से उसका हृदय-वक्षस्थल फूल गया, नेत्र और मुख विकसित श्रेष्ठ कमल जैसे हो गये / अपार हर्ष के कारण पहने हुए श्रेष्ठ कटक, त्रुटित, केयूर, मुकुट और कुण्डल चंचल हो उठे, वक्षस्थल हार से चमचमाने लगा, पैरों तक लटकते प्रालंब-आभूषण विशेष-झूमके विशेष चंचल हो उठे और उत्सुकता, तीव्र अभिलाषा से प्रेरित हो वह देवश्रेष्ठ मूर्याभ देव शीघ्र ही सिंहासन से उठा / उठकर पादपीठ पर पैर रखकर नीचे उतरा। नीचे उतर कर पादुकायें उतारी। पादुकायें उतार कर एकशाटिक उत्तरासंग किया। उत्तरासंग करके तीर्थकर के अभिमुख सात-पाठ डग चला, अभिमुख चलकर बांया घुटना ऊँचा रखा और दाहिने घटने को नीचे भूमि पर टेक कर तीन बार मस्तक को पृथ्वी पर नमाया-झुकाया, फिर मस्तक कुछ ऊँचा उठाया। तत्पश्चात् कटक त्रुटित-बाजूवंद से स्तंभित दोनों भुजाओं को मिलाया। मिला कर दोनों हाथ जोड़ आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके उसने इस प्रकार कहा विवेचन-आन्तरिक हर्ष का उद्रेक होने पर शरीर पर उसका जो असर-प्रभाव दिखता है, उसका इस सूत्र में सुन्दर वर्णन किया है / -नमोऽत्थ णं अरिहंताणं भगवंताणं प्रादिगराणं तित्थगराणं सयंसंबुद्धाणं पुरिसुत्तमाणं पुरिससीहाणं पुरिसबरपुण्डरीयाणं पुरिसवरगंधहत्थीणं लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहिसाणं लोगपईवाणं लोगपज्जोयगराणं अभयदयाणं चक्खुदयाणं मग्गवयाणं जीवदयाणं सरणदयाणं दोवो ताणं (सरणं गई पइट्ठा) बोहिदयाणं धम्मदयाणं धम्मदेसयाणं धम्मनायगाणं धम्मसारहीणं धम्मवरचाउरंतचक्कपट्टीणं अप्पडिहयवरनाण दंसणधराणं वियदृछ उमाणं जिणाणं जावयाणं तिण्णाणं तारयाणं बद्धाणं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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