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________________ 174] . | राजप्रश्नीयसूत्र संबंधी अनुराग संक्रांत हो जाने से मनुष्य लोक में आने की अभिलाषा रखते हुए भी यहाँ प्रा नहीं पाते हैं। 3. अधुनोत्पन्न देव देवलोक में जब दिव्य कामभोगों में मूच्छित यावत् तल्लीन हो जाते हैं तब वे सोचते तो हैं कि अब जाऊँ, अब जाऊँ, कुछ समय बाद जाऊँगा, किन्तु उतने समय में तो उनके इस मनुष्यलोक के अल्पायुषी संबंधी कालधर्म (मरण) को प्राप्त हो चुकते हैं। जिससे मनुष्यलोक में आने की अभिलाषा रखते हुए भी वे यहाँ पा नहीं पाते हैं / 4. वे अधुनोत्पन्नक देव देवलोक के दिव्य कामभोगों में यावत् तल्लीन हो जाते हैं कि जिससे उनको मर्त्यलोक संबंधी अतिशय तीव्र दुर्गन्ध प्रतिकूल और अनिष्टकर लगती है एवं उस मानवीय कुत्सित दुर्गन्ध को ऊपर आकाश में चार-पांच सौ योजन तक फैल जाने से मनुष्यलोक में पाने की इच्छा रखते हुए भी वे उस दुर्गन्ध के कारण पाने में असमर्थ हो जाते हैं। अतएव हे प्रदेशी! मनुष्यलोक में आने के इच्छुक होने पर भी इन चार कारणों से अधुनोत्पन्न देव देवलोक से यहाँ आ नहीं सकते हैं। इसलिये प्रदेशी! तुम यह श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव शरीर नहीं है और न शरीर जीव है। विवेचन-यहाँ दिये गये देवकुल में प्रवेश करने के उदाहरण के स्थान पर दीघनिकाय में कुमार काश्यप ने दूसरा उदाहरण दिया है जैसे कोई पुरुष दुर्गन्धमय कूप में पड़ा हो और उसका शरीर मल से लिप्त हो और उस पुरुष को बाहर निकलकर स्नान, शरीर पर सुगंधित तेल आदि का विलेपन और माला आदि से शृगारित करने के बाद पुन: उसे दुर्गन्धित कूप में घुसने के लिए कहा जाये तो क्या वह उसमें घुसेगा ? प्रत्युत्तर में राजा ने कहा--नहीं घुसेगा। काश्यप-तो इसी प्रकार दुर्गन्धित मनुष्यलोक से स्वर्ग में पहुँचे हुए देव पुनः दूसरी बार दुर्गन्धमय मर्त्यलोक में आयेंगे क्या इत्यादि ? मनुष्यलोक में देवों के न आने के जो कारण यहां बताये हैं, इसी प्रकार दीघनिकाय में भी कहा है कि इस मनुष्यलोक के सौ वर्षों के बराबर त्रायस्त्रिंश देवों का एक दिन-रात होता है / ऐसे सौसौ वर्ष जितने समय वाले तीस दिन-रात होते हैं, तब देवों का एक मास और ऐसे बारह मास का एक वर्ष होता है / इन त्रायस्त्रिश देवों का ऐसे दिव्य हजार वर्षों जितना दीर्घ आयुष्य होता है। ये देव भी विचार करते हैं कि दो-तीन दिन में इन दिव्य कामगुणों को भोगने के बाद अपने मानवसंबंधियों को समाचार देने जाऊंगा इत्यादि / यहाँ मनुष्यलोक संबंधी दुर्गन्ध ऊपर आकाश में चार-सौ, पांच-सौ योजन तक पहुँचने का उल्लेख किया है, इसके बदले दीघनिकाय में कहा है कि देवों की दृष्टि में मनुष्य अपवित्र है, दुरभिगंध वाला है, घृणित है / मनुष्यलोक संबंधी दुर्गन्ध ऊपर सौ योजन तक पहुँचकर देवों को बाधा उत्पन्न करती है। प्रस्तुत में चार-सौ, पाँच-सौ योजन तक दुर्गन्ध पहुँचने का जो उल्लेख किया है उसकी नौ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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