________________ तज्जीव-तच्छरीर वाद मंडन-खंडन] [175 योजन से अधिक दूर से आते सगंध पुद्गल ध्राणेन्द्रिय के विषय नहीं हो सकते हैं----इस शास्त्रीय उल्लेख से किस प्रकार संगति बैठ सकती है ? क्योंकि नौ योजन से अधिक दूर से जो पुद्गल आते हैं उनकी गंध अत्यन्त मंद हो जाती है, जिससे वे घ्राणेन्द्रिय के विषय नहीं हो सकते हैं। इसका समाधान करते हुए टीकाकार ने कहा है कि यद्यपि नियम तो ऐसा ही है किन्तु जो पुद्गल अति उत्कट गंध वाले होते हैं, उनके नौ योजन तक पहुँचने पर जो दूसरे पुद्गल उनसे मिलते हैं, उनमें अपनी गन्ध संक्रांत कर देते हैं और फिर वे पुद्गल भी आगे जाकर दूसरे पुद्गलों को अपनी गंध से वासित कर देते हैं / इस प्रकार ऊपर-ऊपर पुद्गल चार सौ, पाँच-सौ योजन तक पहुँचते हैं / परन्तु यह बात लक्ष्य में रखने योग्य है कि ऊपर-ऊपर वह गंध मंद-मंद होती जाती है / इसी प्रकार से मनुष्यलोक संबंधी दुर्गन्ध साधारणतया चार सौ योजन तक और यदि दुर्गन्ध अत्यन्त तीव्र हो तब पाँच सौ योजन तक पहुंचती है, इसीलिए मूलशास्त्र में चार सो, पाँच सी ये दो संख्यायें बताई हैं। इस संबंध में स्थानांग के टीकाकार आचार्य अभयदेवसूरि का मंतव्य है कि इससे मनुष्यक्षेत्र के दुर्गन्धित स्वरूप को सूचित किया गया है। वस्तुतः देव अथवा दूसरा कोई नौ योजन से अधिक दूर से आगत पुद्गलों की गंध नहीं जानता है, जान नहीं सकता है / शास्त्र में इन्द्रियों का जो विषयप्रमाण बतलाया है, वह संभव है कि प्रौदारिक शरीर संबंधी इन्द्रियों की अपेक्षा कहा हो / भरतादि क्षेत्र में एकान्त सुखमा काल होने पर उसकी दुर्गन्ध चार सौ योजन तक और वह काल न हो तब पांच सौ योजन तक पहुँचती है, इसीलिए दो संख्याएँ बताई हैं। २४८–तए णं से पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वयासी-~ अस्थि णं भंते ! एस पण्णा उवमा, इमेणं पुण कारणेणं णो उवागच्छति, एवं खलु भंते ! अहं अन्नया कयाई वाहिरियाए उवदाणसालाए प्रणग गणणायक-दंडणायग-राय-ईसर-तलवर-माइंबिय कोडुबिय-इन्भ-सेटि-सेणावइ-सत्थवाह-मंति-महामंति-गणग-दोबारिय-अमच्च-चेड-पीढमद्द-नगर-निगमदुय-संधिवालेहि सद्धि संपरिखुडे विहरामि / तए णं मम जगरगुत्तिया ससक्खं सलोइं सगेवेज्ज प्रवउडबंधणबद्ध चोरं उवणेति / तए णं अहं तं पुरिसं जीवंतं चेव प्रउकुभीए पक्खिवावेमि, अउमएणं पिहाणएणं पिहावेमि, पएण य तउएण य आयावेमि, पायपच्चइयएहिं पुरिसेहिं रक्खामि / तए णं अहं अण्णया कयाइं जेणामेव सा अउकुभी तेणामेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता तं अउकुभि उग्गलच्छावेमि, उग्गलच्छावित्ता तं पुरिसं सयमेव पासामि, णो चेव णं तीसे अयकुभोए केइ छिड्डे इ वा विवरे इ वा अंतरे इ वा राई वा जो णं से जीवे अंतोहितो बहिया णिग्गए / जइ णं भंते ! तीसे अउकुभीए होज्जा केई छिड्डे वा जाव राई वा जो णं से जीवे अंतोहितो बहिया णिग्गए, तो गं अहं सद्दहेज्जा-पत्तिएज्जा-रोएज्जा जहा अन्नो जीवो अन्नं सरीरं, नो तं जीवो तं सरीरं, जम्हा णं भंते ! तीसे प्रउभीए णस्थि केइ छिड्डे वा जाव निग्गए, तम्हा सुपतिट्टिया मे पइन्ना जहा-तं जीवो तं सरीरं, नो अन्नो जीवो अन्नं सरीरं। __ २४८--केशी कुमारश्रमण के इस उत्तर को सुनने के अनन्तर राजा प्रदेशी ने केशी कुमारश्रमण से इस प्रकार कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org