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________________ [राजप्रश्नीयसूत्र हे भदन्त ! जीव और शरीर की भिन्नता प्रदर्शित करने के लिए अापने देवों के नहीं आने के कारण रूप में जो उपमा दी, वह तो बुद्धि से कल्पित एक दृष्टान्त मात्र है कि देव इन कारणों से मनुष्यलोक में नहीं पाते हैं / परन्तु भदन्त ! किसी एक दिन मैं अपने अनेक गणनायक (समूह के मुखिया), दंडनायक (अपराध का विचार करने वाले), राजा (जागीरदार), ईश्वर (युवराज), तलवर (राजा की ओर से स्वर्णपट्ट प्राप्त करने वाले), माडंबिक (पांच सौ गांव के स्वामी), कौटुम्बिक (ग्रामप्रधान), इब्भ (अनेकों करोड़ धन-संपत्ति के स्वामी), श्रेष्ठी (प्रमुख व्यापारी), सेनापति, सार्थवाह (देश-देशान्तर जाकर व्यापार करने वाले), मंत्री, महामंत्री, गणक (ज्योतिषशास्त्र वेत्ता), दौवारिक (राजसभा का रक्षक), अमात्य, चेट (सेवक), पीठमर्दक (समवयस्क मित्र विशेष), नागरिक, व्यापारी, दूत, संधिपाल प्रादि के साथ अपनी बाह्य उपस्थानशाला (सभाभवन) में बैठा हुआ था। उसी समय नगर-रक्षक चुराई हुई वस्तु और साक्षी-गवाह सहित गरदन और पीछे दोनों हाथ बांधे एक चोर को पकड़ कर मेरे सामने लाये। तब मैंने उसे जीवित ही एक लोहे की भी में बंद करवा कर अच्छी तरह लोहे के ढक्कन से उसका मुख ढंक दिया / फिर गरम लोहे एवं रांगे से उस पर लेप करा दिया और देखरेख के लिये अपने विश्वासपात्र पुरुषों को नियुक्त कर दिया / तत्पश्चात् किसी दिन मैं उस लोहे की कुभी के पास गया / वहाँ जाकर मैंने उस लोहे की कभी को खुलवाया। खुलवा कर मैंने स्वयं उस पुरुष को देखा तो वह मर चुका था। किन्तु उस लोह कुंभी में राई जितना न कोई छेद था, न कोई विवर था, न कोई अंतर था और न कोई दरार थी कि जिसमें से उस (अंदर बंद) पुरुष का जीव बाहर निकल जाता। यदि उस लोहकूभी में कोई छिद्र यावत् दरार होती तो हे भदन्त ! मैं यह मान लेता कि भीतर बंद पुरुष का जीव बाहर निकल गया है और तब उससे आपकी बात पर विश्वास कर लेता, प्रतीति कर लेता एवं अपनी रुचि का विषय बना लेता-निर्णय कर लेता कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, किन्तु जीव शरीर रूप नहीं और शरीर जीव रूप नहीं है। लेकिन उस लोहकभी में जब कोई छिद्र ही नहीं है यावत् जीव नहीं है तो हे भदन्त ! मेरा यह मंतव्य ठीक है कि जो जीव है वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है, जीव शरीर से भिन्न नहीं और शरीर जीव से भिन्न नहीं है / २४६-तए णं केसी कुमारसमणे पएसि रायं एवं वयासी पएसी ! से जहा नामए कडागारसाला सिया दुहनो लित्ता-गुत्ता-गुत्तदुवारा-णिवायगंभीरा / ग्रहणं के परिसे भेरि च दंडं च गहाय कडागारसालाए अंतो अंतो प्रणपविसति, तीसे कडागार. सालाए सव्वतो समंता घण-निचिय-निरंतर-णिच्छिड्डाई दुवारवयणाई पिहेइ, तीसे कडागारसालाए बहुमज्झदेसभाए ठिच्चा तं भेरि दंडएणं महया-महया सद्देणं तालेज्जा, से जूणं पएसी ! से सद्दे णं अंतोहितो बहिया निग्गच्छइ ? हंता णिगच्छइ। अस्थि शं पएसी! तोसे कूडागारसालाए केइ छिड्डे वा जाव राई वा जत्रो णं से सद्दे अंतोहितो बहिया णिग्गए ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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