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________________ तज्जीव-तच्छरीरवाद मंडन-खंडन / [ 177 नो तिणठे समठे। एवामेव पएसी! जीवे वि अप्पडिहयगई पुढवि भिच्चा, सिलं भिच्चा, पव्वयं भिच्चा अंतोहितो बहिया णिग्गच्छइ, तं सद्दहाहि णं तुम पएसी! अण्णो जीवो तं चेव / २४६–प्रदेशी राजा की इस युक्ति को सुनने के पश्चात् केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से कहा हे प्रदेशी! जैसे कोई एक कटाकारशाला (पर्वत के शिखर जैसी आकृति वाला भवन) हो और वह भीतर-बाहर चारों ओर लीपी हुई हो, अच्छी तरह से आच्छादित हो, उसका द्वार भी गुप्त हो और हवा का प्रवेश भी जिसमें नहीं हो सके, ऐसी गहरी हो / अब यदि उस कुटाकारशाला में कोई पुरुष भेरी और बजाने के लिए डंडा लेकर घुस जाये और घुसकर उस कुटाकारशाला के द्वार आदि को इस प्रकार चारों ओर से बंद कर दे कि जिससे कहीं पर भी थोड़ा-सा अंतर नहीं रहे और उसके बाद उस कुटाकारशाला के बीचों-बीच खड़े होकर डंडे से भेरी को जोर-जोर से बजाये तो हे प्रदेशी! तुम्हीं बताओ कि वह भीतर की आवाज बाहर निकलती है अथवा नहीं ? अर्थात् सुनाई पड़ती है या नहीं? प्रदेशी–हाँ भदन्त ! निकलती है / केशी कुमारश्रमण हे प्रदेशी ! क्या उस कुटाकारशाला में कोई छिद्र यावत् दरार है कि जिसमें से वह शब्द बाहर निकला हो? प्रदेशी–हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। अर्थात् वहाँ पर कोई छिद्रादि नहीं कि जिससे शब्द बाहर निकल सके / केशी कुमारश्रमण-तो इसी प्रकार प्रदेशी! जीव भी अप्रतिहत गति वाला है / वह पृथ्वी का भेदन कर, शिला का भेदन कर, पर्वत का भेदन कर भीतर से बाहर निकल जाता है / इसीलिए हे प्रदेशी ! तुम यह श्रद्धा-प्रतीति करो कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न (पृथक्-पृथक् ) हैं, जीव शरीर नहीं है और शरीर जीव नहीं है। २५०-तए णं पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वदासी अस्थि णं भंते ! एस पण्णा उवमा, इमेणं पुण कारणेणं णो उवागच्छइ, एवं खलु भंते ! अहं अन्नया कयाइ बाहिरियाए उदट्ठाणसालाए जाव' बिहरामि, तए णं ममं जगरगुत्तिया ससक्खं जाव' उवणेति, तए णं अहं (तं) पुरिसं जीवियानो ववरोवेमि, जीवियानो ववरोवेत्ता अयोकुभीए पक्खिवावेमि, प्रउमएणं पिहावेमि जाव' पच्चइएहिं पुरिसेहिं रक्खावेमि। तए णं अहं अन्नया कयाइं जेणेव सा कुभी तेणेव उवागच्छामि, तं प्रउकुभि उग्गलच्छावेमि, तं अउकुमि किमिकुभि पिव पासामि / णो चेव णं तोसे अउकुमीए केइ छिड्डे इ वा जाव राई वा जता णं ते जीवा बहियाहितो अणुपविट्ठा, जति णं तीसे प्रउकुमोए होज्ज केइ छिड्डे इ वा जाव 1-2. देखें सूत्र संख्या 248 3. देखें सूत्र संख्या 248 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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