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________________ 178 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र प्रणपविठ्ठा, तेणं अहं सद्दहेज्जा जहा-अन्नो जीवोतं चेव, जम्हा ण तोसे अउभीए नत्थि केइ छिड्डे इ वा जाव अणुपविट्ठा तम्हा सुपति ठिया मे पइण्णा जहा--तं जीवो तं सरीरं तं चेव / २५०-इस उत्तर को सुनने के पश्चात् प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से इस प्रकार कहा भदन्त ! यह आप द्वारा प्रयुक्त उपमा तो बुद्धिविशेष रूप है, इससे मेरे मन में जीव और शरीर की भिन्नता का विचार युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता है। क्योंकि हे भदन्त ! किसी समय मैं अपनी बाहरी उपस्थानशाला में गणनायक आदि के साथ बैठा हुआ था। तब मेरे नगररक्षकों ने साक्षी सहित यावत् एक चोर पुरुष को उपस्थित किया। मैंने उस पुरुष को प्राणरहित कर दिया अर्थात मार डाला और मारकर एक लोहक भी में डलवा दिया, ढक्कन से ढांक दिया यावत अपने विश्वासपात्र पुरुषों को रक्षा के लिये नियुक्त कर दिया। इसके बाद किसी दिन जहाँ वह कुभी थी, मैं वहाँ आया। आकर उस लोहकुभी को उघाड़ा तो उसे कृमिकुल से व्याप्त देखा। लेकिन उस लोहकु भी में न तो कोई छेद था, न कोई दरार थी कि जिसमें से वे जीव बाहर से उसमें प्रविष्ट हो सकें। यदि उस लोहकुभी में कोई छेद होता यावत् दरार होती तो यह माना जा सकता था-मान लेता कि वे जीव उसमें से होकर कुभी में प्रविष्ट हए हैं और तब मैं श्रद्धा कर लेता कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है। लोहक भी में कोई छेद आदि नहीं थे, फिर भी उसमें जीव प्रविष्ट हो गये / अत: मेरी यह प्रतीति सुप्रतिष्ठित-समीचीन है कि जीव और शरीर एक ही हैं अर्थात् जीव शरीर रूप है और शरीर जीव रूप है। २५१-तए णं केसी कुमारसमणे पएसी रायं एवं क्यासी-- अस्थि णं तुमे पएसी! कयाइ भए धंतपुध्वे वा धम्मावियपुध्वे वा ? हंता प्रथि। से पूणं पएसी ! अए धंते समाणे सव्वे अगणिपरिणए भवति ? हंता भवति / अस्थि णं पएसी ! तस्स अयस्स केई छिड्डे इ वा जेणं से जोई बहियाहितो अंतो अणुपविठे ? नो इणमठे (इणठे) समठे। एवामेव पएसी! जीवो वि अप्पडिहयगई पुढवि भिच्चा, सिलं भिच्चा बहियाहितो अणुपविसइ, तं सद्दहाहि णं तुम पएसी ! तहेव / २५१--तत्पश्चात् केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से इस प्रकार कहा--हे प्रदेशी ! क्या तुमने पहले कभी अग्नि से तपाया हुअा लोहा देखा है अथवा स्वयं लोहे को तपवाया है ? प्रदेशी-हाँ भदन्त ! देखा है। केशी कुमारश्रमण-तब हे प्रदेशी ! तपाये जाने पर वह लोहा पूर्णतया अग्नि रूप में परिणत हो जाता है या नहीं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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