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________________ केशी श्रमण की देशना ] [141 217 ---तत्पश्चात् कंचुकी पुरुष से यह बात सुन-समझ कर चित्त सारथी ने हृष्ट-तुष्ट यावत् हर्षविभोर हृदय होते हुए कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उनसे कहा-हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही चार घंटों वाले अश्वरथ को जोतकर उपस्थित करो। यावत् वे कौटुम्बिक पुरुष छत्रसहित अश्वरथ को जोतकर लाये / २१८-"तए णं से चित्ते सारही हाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवरपरिहिते प्रध्यमहग्घाभरणालंकियसरीरे जेणेव चाउग्घंटे प्रासरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्घंटे प्रासरहं दुरूह सकोरिटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं महया भडचडगरेण विदपरिखित्ते सावत्थीनगरीए मज्झमझणं निग्गच्छइ। निग्गच्छित्ता जेणेव कोट्टए चेइए जेणेव केसिकुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता केसिकुमारसमणस्स अदूरसामंते तुरए णिगिण्हइ रहं ठवेइ य, ठवित्ता पच्चोरुहति / पच्चोरुहिता जेणेव केसिकुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता केसिकुमारसमणं तिक्खुत्तो पायाहिणं-पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ नमसइ, नमंसित्ता णच्चासणे णाति दूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमहे पंजलिउडे विणएणं पज्जुवासइ। २१८--तदनन्तर चित्त सारथी ने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक मंगल प्रायश्चित्त किया, शुद्ध एवं सभोचित मांगलिक वस्त्रों को पहना, अल्प किन्तु बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया और उसके बाद वह चार घण्टों वाले प्रश्वरथ के पास आया। आकर उस चातुर्घट अश्वरथ पर आरूढ़ हुप्रा एवं कोरंट पुरुषों की मालाओं से सुशोभित छत्र धारण करके सुभटों के विशाल समुदाय के साथ श्रावस्ती नगरी के बीचों-बीच होकर निकला। निकलकर जहाँ कोष्ठक नामक चैत्य था और उसमें भी जहाँ केशी कुमारश्रमण विराज रहे थे, वहाँ पाया / आकर केशी कुमारश्रमण से कुछ दूर धोड़ों को रोका और रथ खड़ा किया। रथ खड़ा कर उससे नीचे उतरा / उतर कर जहाँ केशी कुमारश्रमण थे, वहाँ अाया। पाकर दक्षिण दिशा से प्रारंभ कर केशी कुमारश्रमण की तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार करके न अत्यन्त समीप और न अति दूर किन्तु समुचित स्थान पर सम्मुख बैठकर धर्मोपदेश सुनने की इच्छा से नमस्कार करता हुआ विनयपूर्वक अंजलि करके पर्युपासना करने लगा। केशी श्रमण को देशना २१६-तए णं से केसिकुमारसमणे चित्तस्स सारहिस्स तोसे महतिमहालियाए महच्चपरिसाए चाउज्जामं धम्म परिकहेइ / तं जहा--सव्वाप्रो पाणाइवायानो वेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सन्वानो अदिण्णादाणाम्रो वेरमणं, सव्वानो बहिद्धादाणागो वेरमणं / तए णं सा महतिमहालिया महच्चपरिसा केसिस्स कुमारसमणस्स अंतिए धम्म सोच्चा-निसम्म जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। २१६-तत्पश्चात् केशी कुमारश्रमण ने चित्त सारथी और उस अतिविशाल परिषद् को चार याम धर्म का उपदेश दिया। उन चातुर्यामों के नाम इस प्रकार हैं (1) समस्त प्राणातिपात (हिंसा) से विरमण (निवृत्त होना), (2) समस्त मृषावाद (असत्य) से विरत होना, (3) समस्त अदत्तादान से विरत होना, (4) समस्त बहिद्धादान (मैथुन-परिग्रह) से विरत होना। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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