________________ 140] [राजप्रश्नीयसूत्र (युवराज) तलवर (जागीरदार), माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्यश्रेष्ठी (महाधनी-हाथी प्रमाण धन से संपन्न सेठ), सेनापति, सार्थवाह आदि सभी स्नान कर, बलिकर्म कर, कौतुक-मंगल-प्रायश्चित कर, मस्तक और गले में मालाएँ धारण कर, मणिजटित स्वर्ण के प्राभूषणों से शरीर को विभूषित कर, गले में हार, (अठारह लड़ का हार), अर्धहार, तिलड़ी, झूमका, और कमर में लटकते हुए कटिसूत्र (करधनी) पहनकर, शरीर पर चंदन का लेप कर, प्रानंदातिरेक से सिंहनाद और कलकल ध्वनि से श्रावस्ती नगरी को गुजाते हुए जनसमूह के साथ एक ही दिशा में मुख करके जा रहे हैं प्रादि वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार यहां जानना चाहिये / यावत् उनमें से कितने ही घोड़ों पर सवार होकर, कई हाथी पर सवार होकर, कोई रथों में बैठ कर, या पालखी में बैठ कर स्यंदमानिका में बैठ कर और कितने ही अपने अपने समुदाय बनाकर पैदल ही जा रहे हैं। ऐसा विचार किया और विचार करके कंचुकी पुरुष (द्वारपाल) को बुलाकर उससे पूछा देवानुप्रिय ! आज क्या श्रावस्ती नगरी में इन्द्र-महोत्सव है यावत् सागरयात्रा है कि जिससे ये बहुत से उग्रवंशीय, भोगवंशीय आदि सभी लोग अपने-अपने घरों से निकलकर एक ही दिशा में जा रहे हैं ? २१६–तए णं से कंचुईपुरिसे केसिस्स कुमारसमणस्स प्रागमणगहियविणिच्छए चित्तं सारहि करयलपरिग्गहियं जाव वद्धाबेत्ता एवं वयासी–णो खलु देवाणुप्पिया ! अज्ज सावस्थीए णयरीए इंदमहे इवा जाव सागरमहे इ वा जे णं इमे बहवे जाव' विदाविदएहिं निग्गच्छति, एवं खलु भो देवाणुप्पिया ! पासावचिज्जे केसी नाम कुमारसमणे जाइसंपन्ने जाव' दूइज्जमाणे इहमागए जाव विहरइ / तेणं अज्ज सावत्थीए नयरीए बहवे उग्गा जाव इन्भा इबभपुत्ता अप्पेगतिया वंदणवत्तियाए जाव महया बंदावंदएहि णिगच्छति / २१६--तब उस कंचुकी पुरुष ने केशी कुमारश्रमण के पदार्पण होने के निश्चित समाचार जानकर दोनों हाथ जोड़ यावत् जय-विजय शब्दों से वधाकर चित्तसारथी से निवेदन किया--देवानुप्रिय ! आज श्रावस्ती नगरी में इन्द्र-महोत्सव यावत् समुद्रयात्रा आदि नहीं है कि जिससे ये बहुत से उग्रवंशीय आदि लोग अपने-अपने समुदाय बनाकर निकल रहे हैं / परन्तु हे देवानुप्रिय ! बात यह है कि आज जाति आदि से संपन्न पाश्र्वापत्य केशी नामक कुमारश्रमण यावत् एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विहार करते हुए यहाँ पधारे हैं यावत् कोष्ठक चैत्य में विराजमान हैं / इसी कारण आज श्रावस्ती नगरी के ये अनेक उग्रवंशीय यावत् इन्भ, इब्भपुत्र आदि वंदना आदि करने के विचार से बड़े-बड़े समुदायों में अपने घरों से निकल रहे हैं। चित्त सारथी का दर्शनार्थ गमन २१७-तए णं से चित्ते सारही कंचुइपुरिसस्स अंतिए एयम सोच्चा निसम्म हद्वतुट्ठ-जावहियए कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दा वित्ता एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउग्घंट प्रासरहं जुत्तामेव उवट्ठवेह जाव सच्छत्तं उवट्ठति / / 1. देखें मूत्र संसपा 215 2. देखें सूत्र संख्या 213 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org