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________________ तज्जीव-तच्छरीरवाद मंडन-खंडन ] [ 185 ___तए णं से पुरिसे तो मुहत्तन्तरस्स तेसि पुरिसाणं असणं साहेमि ति कटु जेणेव जोतिभायणे तेणेव उवागच्छइ / जोइभायणे जोई विज्झायमेव पासति / तए णं से पुरिसे जेणेव से कट्ठ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं कटु सम्वनो समंता समभिलोएति, नो चेव णं तत्थ जोइं पासति / तए णं से पुरिसे परियरं बंधइ, फरसुगिण्हइ, तं कट्ठ दुहा फालियं करेइ, सव्वतो समंता समभिलोएइ, णो चेव णं तत्थ जोइं पासइ / एवं जाव संखेज्जफालियं करेइ, सन्वतो समंता समभिलोएइ, नो चेव णं तत्थ जोई पासइ। तंते परिसंते निविणे समाणे परसु एगते एडेइ, परियरं मुयइ एवं बयासो-अहो ! मए तेसि पुरिसाणं असणे नो साहिए ति कटु पोयमणसंकप्पे चित्तासोगसागरसंपविट्ठ करयलपल्हत्थमुहे अट्टज्माणोवगए भूमिगयदि ट्ठिए झियाइ। तए णं ते पुरिसा कट्ठाई छिदंति, जेणेव से पुरिसे तेणेव उवागच्छति / तं पुरिसं पोहयमणसंकप्पं जाव झियायमाणं पासंति एवं वयासो–कि णं तुम देवाणुपिया ! प्रोहयमणसंकप्पे जाव झियायर्यास? तए णं से पुरिसे एवं क्यासी-तुझे णं देवाणुपिया ! कट्टाणं अधि अपविसमाणा मम एवं क्यासी-प्रम्हे गं देवाणप्पिया ! कटाणं अडवि जाव पविट्ठा, तए णं अहं तत्तो मुहत्तंतरस्स तुझं असणं साहेमि त्ति कटु जेणेव जोइभायणे जाव झियामि। तए णं तेसि पुरिसाणं एगे पुरिसे छेए, दक्खे, पत्त? जाव उवएसलद्ध, ते पुरिसे एवं वयासीगच्छह गं तुझे देवाणुप्पिया ! व्हाया कयबलिकम्मा जाव हव्यमागच्छेह, जा गं अहं असणं साहेमि त्ति कटु परियरं बंधइ, परसु गिण्हइ सरं करेइ, सरेण अरणि महेइ जोई पाडेइ, जोई संधुक्खेइ, तेसि पुरिताणं असणं साहेइ। तए णं ते पुरिसा बहाया कयबलिकम्मा जाव पायच्छित्ता जेणेव से पुरिसे तेणेव उवागच्छति, तए णं से पुरिसे तेसि पुरिसाणं सुहासणवरगयाणं तं विउलं असणं-पाणं-खाइम-साइमं उवणेइ / तए णं ते पुरिसा तं विउल असणं 4 (पाणं-खाइम-साइमं) प्रासाएमाणा वीसाएमाणा जाव विहरंति / जिमियभुत्तुतरागया वि य णं समाणा प्रायंता चोक्खा परमसुइभूया तं पुरिसं एवं वयासो-अहो ! णं तुम देवाणुप्पिया ! जड्डे-मूढे-अपंडिए-णिविण्णाणे-अणुवएसलद्ध, जे णं तुम इच्छसि कसि दुहाफालियंसि वा जोति पासित्तए / 256 –प्रदेशी राजा के इस कथन को सुनने के अनन्तर केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से कहा-हे प्रदेशो! तुम तो मुझे उस दीन-हीन कठियारे (लकड़ी ढोने वाले) से भी अधिक मूढविवेकहीन प्रतीत होते हो। प्रदेशी–हे भदन्त ! कौनसा दीन-हीन कठियारा ? केशी कुमारश्रमण-हे प्रदेशी! वन में रहने वाले और वन से आजीविका कमाने वाले कुछएक पुरुष वनोत्पन्न वस्तुओं की खोज में आग और अंगीठी लेकर लकड़ियों के वन में प्रविष्ट हुए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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