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________________ 156 ] [राजप्रश्नीयसूत्र आहार से) उन्हें प्रतिलाभित करता है, उनसे अर्थों आदि को पूछता है, वह जीव इस निमित्त से भी केवलिभाषित अर्थ को सुनने का अवसर प्राप्त कर सकता है। 4. इसी प्रकार जो जीव जहाँ कहीं श्रमण या माहन का सुयोग मिलने पर हाथों, वस्त्रों, छत्ता आदि से स्वयं को छिपाता नहीं है, हे चित्त ! वह जीव केवलिप्रज्ञप्त धर्म सुनने का लाभ प्राप्त कर सकता है। लेकिन हे चित्त ! तुम्हारा प्रदेशी राजा जब बाग में पधारे हुए श्रमण या माहन के सन्मुख ही नहीं आता है यावत् अपने को आच्छादित कर लेता है, तो फिर हे चित्त ! प्रदेशी राजा को मैं कैसे धर्म का उपदेश दे सकूँगा? (यहाँ पूर्व के चारों कारण समझ लेना चाहिए।') प्रदेशी राजा को लाने हेतु चित्त की युक्ति--- २३५--तए णं से चित्ते सारही केसिकुमारसमणं एव वयासी एवं खलु भंते ! अण्णया कयाई कंबीएहिं चत्तारि प्रासा उवणयं उवणीया, ते मए पएसिस्स रण्णो अन्नया चेव उवणीया, तं एएणं खलु भंते ! कारणेणं अहं पएसि रायं देवाणुप्पियाणं अंतिए हब्बमाणेस्सामो, तं मा णं देवाणुप्पिया ! तुम्भे पएसिस्स रन्नो धम्ममाइक्खमाणा गिलाएज्जाह, अगिलाए णं भंते ! तुम्भे पएसिस्स रण्णो धम्ममाइक्खेज्जाह, छदेणं भंते ! तुम्मे पएसिस्स रणो धम्ममाइक्खेज्जाह। तए णं से केसी कुमारसमणे चित्तं सारहिं एवं क्यासी-अवि या इं चित्ता ! जाणिस्सामो। तए णं से चित्ते सारही केसि कुमारसमणं वदइ नमसइ, जेणेव चाउग्घंटे प्रासरहे तेणेव उवागच्छइ, चाउग्घंटे प्रासरहं दुरूहइ, जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए। २३५–केशी कुमारश्रमण के कथन को सुनने के अनन्तर चित्त सारथी ने उन से निवेदन किया--हे भदन्त ! किसी समय कंबोज देशवासियों ने चार घोड़े उपहार रूप भेंट किये थे। मैंने उनको प्रदेशी राजा के यहाँ भिजवा दिया था, तो भगवन् ! इन घोड़ों के बहाने मैं शीघ्र ही प्रदेशी राजा को आपके पास लाऊँगा। तब हे देवानुप्रिय ! आप प्रदेशी राजा को धर्मकथा कहते हुए लेशमात्र भी ग्लानि मत करना-खेदखिन्न, उदासीन न होना। हे भदन्त ! आप अग्लानभाव से प्रदेशी राजा को धर्मोपदेश देना / हे भगवन् ! आप स्वेच्छानुसार प्रदेशी राजा को धर्म का कथन करना। __ तब केशी कुमारश्रमण ने चित्त सारथी से कहा-हे चित्त ! अवसर-प्रसंग आने पर देखा जायेगा। तत्पश्चात् चित्त सारथी ने केशी कुमारश्रमण को वन्दना की, नमस्कार किया और फिर जहाँ चार घंटों वाला अश्वरथ खड़ा था, वहाँ आया। आकर उस चार घंटों बाले अश्वरथ पर आरूढ हुआ। फिर जिस दिशा से आया था उसी ओर लौट गया।। २३६-तए णं से चित्ते सारही कल्लं पाउपभायाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलिमि प्रहापंडुरे पभाए कयनियमावस्सए सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते सानो गिहाप्रो णिग्गच्छइ, जेणेव पएसिस्स रम्नो गिहे, जेणेव पएसी राया तेणेव उवागच्छद, पएसि रायं करयल-जाव त्ति कटु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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