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________________ परलोकवादी ये माठ प्रकार बताये हैं। उनमें से छह वाद एकान्त दष्टि वाले हैं। समुच्छेदवाद और नास्ति-मोक्षपरलोकवाद ये दो अनात्मवाद हैं। नयोपदेश ग्रन्थ में उपाध्याय यशोविजय जी ने धम्यंश की दृष्टि से जैसे–चार्वाक को नास्तिक प्रक्रियावादी कहा है वैसे ही धर्माश की दृष्टि से सभी एकान्तवादियों को नास्तिक कहा है। सूत्रकृतांगनियुक्ति में प्रक्रियावादियों के चौरासी प्रकार बताये है। यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता कि उस समय जिन वादों का उल्लेख किया गया है उनकी कौनसी दार्शनिक धारायें थीं ? पर वर्तमान में उन धाराओं के संवाहक दार्शनिक इस प्रकार है१. एकवादी 1. ब्रह्मातवादी-बेदान्त / 2. विज्ञानाद्वैतवादी-बौद्ध / 3. शब्दाद्वैतवादी-वैयाकरण / ब्रह्मादतवादी की दष्टि से ब्रह्म, विज्ञानाद्वैतवादी की दष्टि से विज्ञान और शब्दाद्वैतवादी की दृष्टि से शब्द पारमार्थिक तत्त्व है। शेष तत्त्व अपारमार्थिक हैं। अतः ये सारे दर्शन एकवादी हैं / अनेकान्त दृष्टि के आलोक में सभी पदार्थ संग्रहनय की दृष्टि से एक हैं और व्यवहारनय की दृष्टि से अनेक है / अनेकवादी वैशेषिक दर्शन अनेकवादी है / उसके अभिमतानुसार धर्म-धर्मी, अवयव-अवयबी पृथक्-पृथक् हैं / 16 3. मितवादी 1. जीवों की संख्या परिमित मानने वाले–इनके मन्तव्य पर स्याद्वादमञ्जरी टीका में चिन्तन किया गया है।२० 2. प्रात्मा को अंगुष्ठपर्व या श्यामाक तंदुल जितना मानने वाले इस सम्बन्ध में बृहदारण्यक उपनिषद्,२१ छान्दोग्योपनिषद्,२२ कौषीतकी उपनिषद्,२३ मुण्डक उपनिषद्२४ प्रादि विविध उपनिषदों का मत है / लोक को केवल सात दीय समट का मानने वाले इस विचारधारा का उल्लेख भगवती प्रादि में हुआ है। 18. "धयं नास्तिको ह्य को, बार्हस्पत्यः प्रकीर्तितः / धर्माशे नास्तिका ज्ञेयाः, सर्वेऽपि परतीथिकाः // ' --नयोपदेश, श्लोक-१२६ 19. स्वतोनुवृत्ति-व्यतिभाजो, भावा न भावान्तरनेयरूपाः / परात्मतत्त्वादतथात्मतत्वाद, द्वयं बदन्तोऽकुशलाः स्खलन्ति // अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, श्लोक-४ 20. मुक्तोपि वाभ्येतु भवं भवो वा भवस्थशून्योस्तु मितात्मवादे / षड़जीवकायं स्वमनन्तसंख्यमाख्यस्तथा नाथ ! यथा न दोषः // -ग्रन्ययोग०, श्लोक-२९ 21. अस्थल मन एव ह्रस्वमदीर्घमलोहितमस्वेहमच्छायमतमोऽवाय्वनाकाशमसङ्गमरसमगन्धमचक्षुष्कमश्रोत्रमवाग: श्नोऽतेजस्कमप्राणभमुखमनन्तरमवाह्यम् / यथा ब्रीहिर्वा यवो वा ! -बृहदारण्यक उपनिषद-३।८।८; 56 / 1 22. प्रदेशमात्रम ! -छान्दोग्य उपनिषद्-५।१८।१ 23. एष प्रज्ञात्मा इदं--शरीरमनप्रविष्ट: / -कौषीतकी उपनिषद-...-३५४२० 24. सर्वगतः। -मुण्डक-उपनिषद्-११६ [19] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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