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________________ नृत्य-गान आदि का रूपक ] [ 51 ८१-इसके बाद वे सभी देवकुमार और देवकुमारियाँ पंक्तिबद्ध होकर एक साथ मिले। मिलकर सब एक साथ नीचे नमे और एक साथ ही अपना मस्तक ऊपर कर सीधे खड़े हुए / इसी क्रम से पुनः सभी एक साथ मिलकर नीचे नमे और फिर मस्तक ऊँचा कर सीधे खड़े हुए। इसी प्रकार सीधे खड़े होकर नीचे नमे और फिर सीधे खड़े हुए / खड़े होकर धीमे से कुछ नमे और फिर सीधे खडे हुए / खड़े होकर एक साथ अलग-अलग फैल गये और फिर यथायोग्य नृत्य-गान आदि के उपकरणोंवाद्यों को लेकर एक साथ ही बजाने लगे, एक साथ ही गाने लगे और एक साथ नृत्य करने लगे। विवेचन-मूल पाठ में 'समामेव, सहितामेव तथा संगयामेव' ये तीन शब्द प्रयुक्त किए गए हैं / इनका संस्कृतरूप 'समकमेव, सहितमेव और संगतमेव' होता है। सामान्यतया तीनों शब्द समानार्थक प्रतीत होते हैं, किन्तु इनके अर्थ में भिन्नता है। टीकाकार ने किसी नाट्यकुशल उपाध्याय से इनका अर्थभेद समझ लेने की सूचना की है। नृत्य गान आदि का रूपक ८२-कि ते ? उरेणं मंदं सिरेण तारं कंठेण वितारं तिविहं तिसमयरेयगर इयं गुजाऽवंककुहरोवगूढं रत्तं तिठाणकरणसुद्ध सकुहरगुजंतवंस-तंती-तल-ताल-लय-गहसुसंपउत्तं महुरं समं सललियं मणोहरं मिउरिभियपयसंचारं सुरइ सुणइ वरचाररूवं दिवं पट्टसज्जं गेयं पगीया वि होत्था। ८२-उनका संगीत इस प्रकार का था कि उर-हृदयस्थल से उद्गत होने पर आदि में मन्द मन्द-धीमा, मर्छा में आने पर तार-उच्च स्वर वाला और कंठ स्थान में विशेष तार स्वर (उच्चतर ध्वनि) वाला था। इस तरह त्रिस्थान-समुद्गत वह संगीत त्रिसमय रेचक से रचित होने पर विविध रूप था। संगीत की मधुर प्रतिध्वनि-गुजारव से समस्त प्रेक्षागृह मण्डप गूजने लगता था / गेय रागरागनी के अनुरूप था। त्रिस्थान त्रिकरण से शुद्ध था, अर्थात् उर, शिर एवं कण्ठ में स्वर संचार रूप क्रिया से शुद्ध था। गूंजती हुई बांसुरी और वीणा के स्वरों से एक रूप मिला हुआ था / एक-दूसरे की बजती हथेली के स्वर का अनुसरण करता था / मुरज और कंशिका आदि वाद्यों की झंकारों तथा नर्तकों के पादक्षेप-ठुमक से बराबर मेल खाता था। वीणा के लय के अनुरूप था / वीणा आदि वाद्य धुनों का अनुकरण करने वाला था। कोयल की कुहू-कुहू जैसा मधुर तथा सर्व प्रकार से सम, सललित, मनोहर, मृदु, रिभित पदसंचार युक्त, श्रोताओं को रतिकर, सुखान्त ऐसा उन नर्तकों का नृत्यसज्ज विशिष्ट प्रकार का उत्तमोत्तम संगीत था। ८३-कि ते ? उद्ध मताणं संखाणं सिंगाणं संखियाणं खरमुहीणं पेयाणं पिरिपिरियाणं, प्राहम्मंताणं पणवाणं पडहाणं, अप्फालिज्जमाणाणं भंभाणं होरंभाणं, तालिज्जताणं भेरीणं झल्लरीणं दुदुहीणं, पालवंताणं मुरयाणं मुइगाणं नंदीमुइंगाणं, उत्तालिज्जताणं आलिंगाणं कुतुबाणं गोमहीणं महलाणं, मुच्छिज्जताणं वीणाणं विपंचोणं वल्लकीणं, कुट्टिज्जताणं महतोणं कच्छमीणं चित्तवीणाणं, सारिज्जंताणं बद्धीसाणं सुघोसाणं नंदिघोसाणं, फुटिज्जंतीणं भामरीणं छ भामरीणं परिवायणीणं, छिप्पतीणं तूणाणं तुंबवीणाणं, पामोडिज्जंताणं प्रामोताणं झंझाणं नउलाणं, अच्छिज्जंतीणं मगुदाणं हडक्कीणं विचिक्कीणं, वाइज्जंताणं करडाणं डिडिमाणं किणियाणं कडम्बाणं, ताडिज्जताणं दहरिगाणं ददरगाणं कुतुबाणं कलसियाणं मड्डयाणं, प्राताडिताणं तलाणं तालाणं कसतालाणं, घट्टिज्जंताणं रिगिरिसियाणं लत्तियाणं मगरियाणं सुसुमारियाणं, फूमिज्जंताणं वंसाणं वेलूणं वालीणं परिल्लीणं बद्धगाणं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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