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________________ 52] [ राजप्रश्नीयसूत्र ८३--मधुर संगीत-गान के साथ-साथ नृत्य करने वाले देवकुमार और कुमारिकाओं में से शंख, शृग, शंखिका, खरमुखी, पेया पिरिपिरका के वादक उन्हें उद्धमानित करते-फूकते, पणव और पटह पर आघात करते, भंभा और होरंभ पर टंकार मारते, भेरी झल्लरी और दुन्दुभि को ताड़ित करते, मुरज, मृदंग और नन्दीमृदंग का पालाप लेते, प्रालिंग कुस्तुम्ब, गोमुखी और मादल पर उत्ताडन करते, वीणा विपंची और वल्लकी को मूच्छित करते, महती वीणा (सौ तार की वीणा), कच्छपीवीणा और चित्रवीणा को कटते, बद्धीस, सुघोषा, नन्दीघोष का सारण करते, भ्रामरी-षड् भ्रामरी और परिवादनी वीणा का स्फोटन करते, तूण, तुम्बवीणा का स्पर्श करते, आमोट झांझ कुम्भ और नकुल को आमोटते-परस्पर टकराते-खनखनाते, मृदंग-हुडुक्क-विचिक्की को धीमे से छूते, करड़ डिडिम किणित और कडम्ब को बजाते, दर्दरक, दर्दरिका कुस्तुबुरु, कलशिका मड्ड को जोरजोर से ताडित करते, तल, ताल कांस्यताल को धीरे से ताडित करते, रिंगिरिसिका लत्तिका, मकरिका और शिशुमारिका का घट्टन करते तथा वंशी, वेणु, वाली परिल्ली तथा बद्धकों को फूकते थे। इस प्रकार वे सभी अपने-अपने वाद्यों को बजा रहे थे। ८४-तए णं से दिम्बे गीए, दिव्वे बाइए, दिब्वे नट्ट एवं अन्भुए सिंगारे उराले मणुन्ने मणहरे गीते मणहरे न? मणहरे वातिए उप्पिजलभूते कहकहभूते दिवे देवरमणे पवत्ते या वि होत्था / ८४-इस प्रकार का वह वाद्य सहचरित दिव्य संगीत दिव्य वादन और दिव्य नृत्य प्राश्चर्यकारी होने से अद्भुत, शृंगाररसोपेत होने से शृंगाररूप, परिपूर्ण गुण-युक्त होने से उदार, दर्शकों के मनोनुकूल होने से मनोज्ञ था कि जिससे वह मनमोहक गीत, मनोहर नृत्य और मनोहर वाद्यवादन सभी के चित का आक्षेपक (ईर्ष्या-स्पर्धा जनक) था। दर्शकों के कहकहीं-वाह-वाह के कोलाहल से नाट्यशाला को गूजा रहा था। इस प्रकार से वे देवकुमार और कुमारिकायें दिव्य देवक्रीड़ा में प्रवृत्त हो रहे थे। नाट्याभिनयों का प्रदर्शन ८५---तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीयो य समणस्स भगवो महावीरस्स सोस्थियसिरिवच्छ-नंदियावत्त-वद्धमाणग-भद्दासण-कलस-मच्छ दप्पणमंगल्लभत्तिचित्तं णामं दिव्वं नट्टविधि उवदंसेंति। ८५-तत्पश्चात् उस दिव्य नृत्य क्रीड़ा में प्रवृत्त उन देवकुमारों और कुमारिकारों ने श्रमण भगवान् महावीर एवं गौतमादि श्रमण निर्ग्रन्थों के समक्ष 1. स्वस्तिक 2. श्रीवत्स 3. नन्दावर्त 4. वर्धमानक 5. भद्रासन 6. कलश 7. मत्स्य और 8. दर्पण, इन आठ मंगल द्रव्यों का आकार रूप दिव्य नाट्य-अभिनय करके दिखलाया। ८६-तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारोओ य सममेव समोसरणं करेंति करित्ता तं चेव भाणियन्वं जाव दिब्वे देवरमणे पवत्ते या वि होत्था / 86-- तत्पश्चात् अर्थात् मंगलद्रव्याकार नाट्य-अभिनय सम्पन्न करने के पश्चात् दूसरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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