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________________ 58] [ राजप्रश्नीयसूत्र हे गौतम! द्रव्याथिकनय की अपेक्षा वह शाश्वत है परन्तु वर्ण, गंध, रस, और स्पर्श पर्यायों की अपेक्षा प्रशाश्वत है / इसी कारण हे गौतम ! यह कहा है कि वह पद्मवरवेदिका शाश्वत भी है और प्रशाश्वत भी है। हे भदन्त ! काल की अपेक्षा वह पद्मवर-वेदिका कितने काल पर्यन्त--कब तक रहेगी? हे गौतम ? वह पद्मवरवेदिका पहले (भूतकाल में) कभी नहीं थी, ऐसा नहीं है, अभी (वर्तमान में) नहीं है, ऐसा भी नहीं है और प्रागे (भविष्य में) नहीं रहेगी ऐसा भी नहीं है, किन्तु पहले भी थी. अब भी है और आगे भी रहेगी। इस प्रकार त्रिकालावस्थायी होने से वह पद्मवरवेदिका ध्र व, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में पद्मवरवेदिका की शाश्वतता विषयक गौतम स्वामी की जिज्ञासा का समाधान द्रव्याथिक और पर्यायाथिक इन दो दृष्टियों (नयों से) किया गया है। भगवान् ने पदमवर वेदिका को द्रव्याथिक दृष्टि से शाश्वत बताने के साथ वर्णादि पर्यायों के परिवर्तनशील होने से प्रशाश्वत बताया है क्योंकि द्रव्य-पर्याय का यही स्वरूप है / नित्य शाश्वत ध्र व होते हुए भी द्रव्य में भावात्मक-पर्यायात्मक परिवर्तन प्रतिसमय होता रहता है। इन्हीं परिवर्तनों को पर्याय कहते हैं और पर्यायें अशाश्वत होती हैं। पर्यायें अवश्य ही प्रतिसमय परिवर्तित होती रहती हैं परन्तु प्रदेशों के लिए यह नियम नहीं है। किन्हीं द्रव्यों के प्रदेश नियत भी होते हैं और किन्हीं के अनियत भी / जैसे कि जीव के प्रदेश सभी देश और काल में नियत हैं, वे कभी घटते-बढ़ते नहीं हैं। किन्तु पुद्गलद्रव्य के प्रदेशों का नियम नहीं है, उनमें न्यूनाधिकता होती रहती है / - पद्मवरवेदिका पौद्गलिक है और पर्याय दृष्टि से परिवर्तनशील-अशाश्वत है किन्तु पुद्गल द्रव्य होते हुए भी अनियत प्रदेशी नहीं है / इन सब विशेषताओं को सूत्र में ध्र वा णियया, सासया, अक्खया, अव्वया, अवट्ठिया-ध्र व नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित पदों से स्पष्ट किया है / १५६—सा णं पउमवरवेइया एगेणं वणसंडेणं सवप्रो संपरिक्खित्ता। से णं वणसंडे देसणाई दो जोयणाई चक्कवालविक्खंभेणं उवयारियालेणसमे परिवखवणं, वणसंडवण्णो भाणितन्वो जाव विहरंति / १५६--वह पद्मबरवेदिका चारों ओर-सभी दिशा-विदिशाओं में एक वनखंड से परिवेष्टित-घिरी हुई है। उस वनखंड का चक्रवालविष्कम्भ (गोलाकार-चौड़ाई) कुछ कम दो योजन प्रमाण है तथा उपकारिकालयन की परिधि जितनी उसको परिधि है / वहाँ देव-देवियाँ विचरण करती हैं, यहाँ तक वनखंड का वर्णन पूर्ववत् यहाँ कर लेना चाहिये। विवेचन--सूत्र संख्या 136-151 में वनखंड का विस्तार से वर्णन किया है। उसी वर्णन को यहाँ करने का संकेत 'वणसंडवण्णो भाणितब्बो जाव विहरंति' पद से किया है। संक्षेप में उक्त वर्णन का सारांश इस प्रकार है--- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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