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________________ सूर्याभदेव का समोवसरण में आगमन] [41 आचरित है / हे सूर्याभ ! यह अभ्यनुज्ञात-सम्मत है कि भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव अरिहंत भगवन्तों को वन्दन करते हैं, नमन करते हैं और वन्दन-नमस्कार करने के पश्चात् वे अपने-अपने नाम और गोत्र का उच्चारण करते हैं / अतएव हे सूर्याभ ! तुम्हारी यह सारी प्रवृत्ति पुरातन है यावत् हे सूर्याभ ! संमत है। ६८–तए णं से सरियामे देवे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठ जाव तुट्ठचित्तमाणदिए पोइमणे परमसोमणस्सिए हरिस-वस-विसप्पमाणहियए समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता नच्चासण्णे नातिदूरे सुस्ससमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासति / ६८-तब वह सूर्याभ देव श्रमण भगवान महावीर के इस कथन को सुनकर अतीव हर्षित हुआ यावत् (संतुष्ट हुआ, मन में अति आनंदित हुना, मन में प्रीति हुई, अत्यन्त अनुरागपूर्ण मनवाला हुआ, हर्षातिरेक से विकसित हृदयवाला हुआ) और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करके न तो उनसे अधिक निकट और न अधिक दूर किन्तु यथोचित स्थान पर स्थित होकर शुश्रूषा करता हुआ, नमस्कार करता हुआ, अभिमुख विनयपूर्वक दोनों हाथ जोड़कर अंजलि करके पर्युपासना करने लगा। ६६-तए णं समणे भगवं महावीरे सरियाभस्स देवस्स तोसे य महतिमहालिताए परिसाए जाव (इसिपरिसाए मुणिपरिसाए जइपरिसाए देवपरिसाए अणेगसयाए प्रणेगसयवंदाए अणेगसयवंदपरिवाराए) धम्म परिकहेइ / परिसा जामेव दिसि पाउन्भूता तामेव दिसि पडिगया। 69 तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर ने सूर्याभदेव को, और उस उपस्थित विशाल परिषद को यावत् (ऋषियों की सभा को, मुनियों की सभा को, यतियों की सभा को, देवों की सभा को, अनेक सौ संख्यावाली अनेक शत (सैकड़ों के) समूह वाली अनेकशतसमूह युक्त परिवार वाली सभा को) धर्मदेशना सुनाई / देशना सुनकर परिषद् जिस दिशा से आई थी वापस उसी ओर लौट गई। विवेचन–'महतिमहालिताए' यह परिषद् का विशेषण है जिसका अर्थ यह है कि भगवान् की देशना सुनने के लिये सूर्याभदेव, सेयराजा, धारिणी आदि रानियों के सिवाय ऋषिपरिषदा, मुनिपरिषदा, यतिपरिषदा देवपरिषदा, के साथ हजारों नर नारी, उनके समूह और उन समूहों में भी बहुत से अपने-अपने सभी पारिवारिक जनों सहित उपस्थित थे। भगवान के समवसरण में उपस्थित विशाल परिषदा और धर्मदेशना अादि का प्रोपपातिक सूत्र में विस्तार से वर्णन किया गया है / संक्षेप में जिसका सारांश इस प्रकार है अप्रतिबद्ध बलशाली, अतिशय बलवान, प्रशस्त, अपरिमित बल, वीर्य, तेज, माहात्म्य एवं कांतियुक्त श्रमण भगवान् महावीर ने शरदकालीन नूतन मेघ की गर्जना जैसी गंभीर, कोंच पक्षी के निर्घोष तथा दुन्दुभिनाद के समान मधुर, वक्षस्थल में विस्तृत होती हई, कंठ में अवस्थित होती हुई तथा मर्धा में व्याप्त होती हई, सुव्यक्त स्पष्ट, वर्ण-पद की विकलता-हकलाहट आदि से रहित, सर्वअक्षर सन्निपात-समस्त वर्षों के सुव्यवस्थित संयोग से युक्त, पूर्ण तथा माधुर्य गुणयुक्त स्वर से समन्वित, श्रोताओं की अपनी-अपनी भाषा में परिणत होने के स्वभाव वाली वाणी द्वारा राजा, रानी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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