________________ अंचित को तेईसवां कर्ण माना है। प्रस्तुत अभिनय में पैरों को स्वस्तिक के आकार में रखा जाता है। दाहिने हाथ को कटिहस्त नित हस्त की एक मुद्रा] और बायें हाथ को व्यावत तथा परिवत कर नाक के पास अंचित करने से यह मुद्रा बनती है।८८ चिन्तातुर व्यक्ति हाथ पर ठोडी टिका कर सिर को नीचा रखता है, वह मुद्रा 'अंचित है। राजप्रश्नीय में यह पच्चीसवां नाट्यभेद माना गया है। "रिभित" के सम्बन्ध में विशेष जानकारी ग्रन्थों में नहीं है। "पारभट"-माया, इन्द्रजाल, संग्राम, क्रोध, उद्भ्रान्त प्रभृति चेष्टाओं से युक्त तथा वध, बन्धन आदि से उद्धत नाटक 'आरभटी' है:१६ 'साहित्यदर्पण' deg में इसके चार प्रकार बताये गये हैं / प्रारभट को राजप्रश्नीय में नाट्यभेद का अठारहवां प्रकार माना है। "भसोल"--स्थानांग वृत्ति में इस सम्बन्ध में कोई विशेष विवरण नहीं दिया है।६१ राजप्रश्नीय में इसे उनतीसवाँ प्रकार माना है। सूर्याभदेव विविध प्रकार के गीत और नाट्य प्रदर्शित करने के पश्चात् भगवान् महावीर को नमस्कार कर स्वस्थान को प्रस्थित हो गया। गणधर गौतम ने सूर्याभदेव के विमान के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रस्तुत की। भगवान ने विस्तार से विमान का वर्णन सुनाया। साथ ही गौतम ने पुनः यह जिज्ञासा प्रस्तुत की कि यह दिव्य देवऋद्धि सूर्याभदेव को किन शुभ कर्मों के कारण प्राप्त हुई है ? प्रभु महावीर ने समाधान करते हुए उसका पूर्वभव सुनाया, जो प्रस्तुत आगम का द्वितीय विभाग है। केकया जनपद 'केकय अर्ध' जनपद था। जैन साहित्य में साढ़े पच्चोस ार्य क्षेत्रों की परिगणना की गई है। उन देशों और राजधानियों का उल्लेख बहत्कल्पभाष्यवत्ति 2 प्रज्ञापना और प्रवचनसारोद्धार 4 में हुआ है। इन देशों में तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव पैदा हुए / इसलिए इन्हें आर्य जनपद कहा है। जिन देशों में तीर्थकर, प्रभति महापुरुष पैदा होते हैं, वह पार्य हैं।६६ आर्य और अनार्य जनपदों की व्यवस्था के सम्बन्ध में आवश्यकचणि, तत्त्वार्थभाष्य, तत्वार्थराजवातिक आदि में चर्चाएं हैं। हम यहाँ विस्तार से चर्चा में न जाकर यह बताना चाहेंगे कि केकयार्ध' की परिगणना अर्धजनपद में की गई थी। यो केकय नाम के दो प्रदेश थे। एक की 88. भारतीय संगीत का इतिहास, पृष्ठ-४२५ 89. आप्टे डिक्शनरी में प्रारभट शब्द के अन्तर्गत उद्ध त मायेन्द्रजालसंग्रामक्रोधोभ्रान्तादिचेष्टितैः / संयुक्ता वधबन्धाद्यैरुद्ध तारभटी मता // 90. साहित्यदर्पण-४२० / 91. नाट्यगेयाभिनयसूत्राणि सम्प्रदायाभावान्न विवृतानि / ---स्थानांगवृत्ति, पत्र-२७२ 92. बहत्कल्पभाष्यवृत्ति--१. 3263; 93. प्रज्ञापनासूत्र--१.६६ पृष्ठ 173; 94. प्रवचनसारोद्धार, पृष्ठ 446 95. 'इत्युप्पत्ति जिणाणं, चक्कोणं रामकण्हाणं / ' -प्रज्ञापना-१ 96. 'यत्र तीर्थकरादीनामुत्पतिस्तदाय, शेषमनार्यम् !' --प्रवचनसारोद्धार, पृष्ठ-४४६ 97. आवश्यकचूणि 98. तत्त्वार्थभाष्य--३११५ 99. तत्त्वार्थराजवार्तिक-३१३६, पृष्ठ-२०० [28] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org