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________________ विमान के बनखण्डों का वर्णन [75 उन द्वारों के ऊपर ध्वजाओं यावत् छत्रातिछत्रों से शोभित स्वस्तिक आदि पाठ-पाठ मंगल हैं। __इस प्रकार सूर्याभ विमान में सब मिलकर चार हजार द्वार सुशोभित हो रहे हैं / विमान के वनखण्डों का वर्णन १३६-सरियाभस्स विमाणस्स चउद्दिस पंच जोयणसयाई अबाहाए चत्तारि वणसंडा पन्नत्ता, तं जहा---प्रसोगवणे, सत्तवण्णवणे, चंपगवणे, चूयगवणे / पुरस्थिमेणं असोगवणे, दाहिणेणं सत्तवन्नवणे, पच्चत्थिमेणं चंपगवणे, उत्तरेणं चूयगवण / ते णं वणखंडा साइरेगाइं प्रद्धतेरस जोयणसयसहस्साई प्रायामेणं, पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं, पत्तेयं पत्तेयं पागारपरिखित्ता, किण्हा किण्होमासा, नीला नीलोभासा, हरिया हरियोभासा, सीया सोयोभासा, निद्धा निद्धोभासा, तिब्वा तिन्वोभासा, किण्हा किण्हच्छाया, नीला नीलच्छाया, हरिया हरियच्छाया, सीया सीयच्छाया, निद्धा निद्धच्छाया, घणकडितडियच्छाया, रम्मा महामेहनिकुरुबभूया ।..ते णं पायवा मूलमंतो वणखंडवन्नो / १३६-उस सूर्याभविमान के चारों ओर पांच सौ-पांच सौ योजन के अन्तर पर चार दिशाओं में 1. अशोकवन, 2. सप्तपर्णवन, 3. चंपकवन और 4. आम्रवन नामक चार वन खंड हैं। पूर्व दिशा में अशोकवन, दक्षिण दिशा में सप्तपर्ण वन, पश्चिम में चंपक वन और उत्तर में आम्रवन है। ये प्रत्येक वनखंड साढ़े बारह लाख योजन से कुछ अधिक लम्बे और पांच सौ योजन चौड़े हैं / प्रत्येक वनखंड एक-एक परकोटे से परिवेष्टित-घिरा है। ये सभी वनखंड अत्यन्त घने होने के कारण काले और काली प्राभा वाले, नीले और नील आभा वाले, हरे और हरी कांति वाले, शीत स्पर्श और शीत प्राभा वाले, स्निग्ध-कमनीय और कमनीय कांति दीप्ति-प्रभा वाले, तीव्र प्रभा वाले तथा काले और काली छाया वाले, नीले और नीली छाया वाले, हरे और हरी छाया वाले, शीतल और शीतल छाया वाले, स्निग्ध और स्निग्ध छाया वाले हैं एवं वृक्षों की शाखा-प्रशाखायें आपस में एक दूसरी से मिली होने के कारण अपनी सघन छाया से बड़े ही रमणीय तथा महा मेघों के समुदाय जैसे सुहावने दिखते हैं। इन वनखंडों के वृक्ष जमीन के भीतर गहरी फैली हुई जड़ों से युक्त हैं, इत्यादि वृक्षों का समग्र वर्णन प्रौपपातिक सूत्र के अनुसार यहाँ करना चाहिए। विवेचन--औपपातिक सूत्र के अनुसार संक्षेप में वनखंड के वृक्षों का वर्णन इस प्रकार है 1. एक जाति वाले श्रेष्ठ वृक्षों के समूह को वन और भिन्न-भिन्न जाति वाले वृक्षों के समुदाय को वनखंड ___ कहते हैं--एग जाईएहिं रुक्लेहि वणं अणेगजाईएहिं उत्तमेहिं रुक्षेहि वणसण्डे (जीवाभिगम चूणि)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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