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________________ सम्मान में वैशाख मास में उत्सव मनाया जाता है। भगवान महावीर के समय शिव की अर्चा प्रचलित थी। ढोंढसिवा अचितशिव माना जाता था, उसकी भी उपासना शिव के रूप में ही होती थी।११६ 'वैश्रमणमह' छठा उत्सव था। वैश्रमण उत्तर दिशा का लोकपाल और समस्त निधियों का अधिपति था। जीवाजीवाभिगम में वैश्रमण को यक्षों का अधिपति और उत्तर दिशा का लोकपाल कहा है। 120 हॉपकिन्स ने वैश्रमण को राक्षस और गुह्यकों का अधिपति कहा है। 121 'नागमह' सातवां उत्सव था। वैदिक पुराणों के अनुसार सर्पदेवता सामान्य रूप से पृथ्वी के अधःस्थल में निवास करते हैं, जहाँ पर शेषनाग अपने सहन फन से पृथ्वी के अपार भार को सम्हाले हुए है। 22 जैन दृष्टि से सगर चक्रवर्ती के जण्हकुमार आदि साठ हजार पुत्र थे। उन्होंने दण्डरत्न से अष्टापद पर्वत के चारों ओर एक खाई खोदी और गंगा के नौर से उस खाई को भरने लगे। पर खाई का पानी नागभवनों में जाने से नागराज क्रुद्ध हुप्रा / उसने नयन-विष महासर्प प्रेषित किये, जिन्हें देखते ही सगरपुत्र भस्म हो गये / महाभारत में नाग तक्षक का उल्लेख है, जिसने अपने भयंकर विष से वटवृक्ष को और राजा परीक्षित के भव्य भवन को जलाकर नष्ट कर दिया था / कालियनाग ने यमुना नदी के नीर को विषयुक्त कर दिया था।१२3 साकेत में एक महान् नागगृह था / 124 ज्ञाताधर्मकथा के अनुसार रानी पद्मावती ने नागदेव की अर्चा की थी। 125 नागकुमार धरणेन्द्र ने भगवान पार्श्व की जल से छत्र बनाकर रक्षा की थी / 126 'मुचिलिद' नाम के सर्पराज ने तथागत बुद्ध की हवा और पानी से रक्षा की थी।२७ इस तरह नाग की चर्चा अनेक स्थलों पर है और उसके भय से लोग उसकी उपासना करते थे / अाज भी भारत में लोग 'नागपंचमी का पर्व मनाते हैं, जो एक प्रकार से नागमह का ही रूप है। 'यक्षमह' पाठबां उत्सब था। नगरों और गांवों के बाहर यक्षायतन होते थे। लोगों की यह धारणा थी कि यक्ष की पूजा करने से कोई भी संक्रामक रोग हमारे ऊपर आक्रमण नहीं कर सकेगा। यक्ष इन रोगों से हमारी रक्षा करेगा।१२८ अभिधान-राजेन्द्रकोष में पूर्णभद्र, मणिभद्र प्रादि तेरह यक्षों का उल्लेख हुमा है।१२६ जो ब्रह्मचारी हैं, उनको यक्ष, देव, दानव और गन्धर्व नमन करते हैं / 130 119. (क) बृहत्कल्पभाष्य-५. 5928. (ख) अावश्यक चूणि, पृष्ठ-३१२. 120. जीवाजीवाभिगम, 3. पृष्ठ-२८१ 121. डा. हॉपकिन्स ई. डब्ल्यू.इपिक माइथॉलौजी, स्ट्रासबर्ग 1915 122. इपिक माइथॉलोजी, स्ट्रासबर्ग 1915 --डा. हॉपकिन्स ई. डबल्यू. 123. इण्डियन सर्पेण्ट लोर, लंदन-१९२६, फोगल जे. 124. (क) अर्थशास्त्र-५.२.९०.४९. पृष्ठ-१७६ (ख) इण्डियन सर्पेण्ट लोर, लंदन-१९२६, फोगल जे. 125. ज्ञाताधर्मकथा-८, पृष्ठ-९५ 126. प्राचारांगनियुक्ति-३३५. टीका, पृष्ठ-३८५. 127. इण्डियन सर्पेण्ट लोर, लंदन, पृष्ठ-४१,–फोगेल जे० 128. डिस्ट्रिक्ट गजेटियर आव मुगेर, पृष्ठ-५५ 129. अभिधान राजेन्द्र कोष---'जक्ख शब्द' 130. 'देव-दाणव-गंधव्वा, जक्ख-रक्खस-किन्नरा / बंभयारि नमसंति, दुक्करं जे करेंति तं // -उत्तराध्ययन-अध्ययन-१६, गा.१६ [32] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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