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________________ 152] [ राजप्रश्नीयसून उद्यानपालक भी इस संवाद को सुनकर और समझ कर हर्षित, सन्तुष्ट हुए यावत् विकसित. हृदय होते हुए जहाँ केशी कुमारश्रमण थे, वहाँ आये / प्राकर केशी कुमारश्रमण को वंदना की, नमस्कार किया एवं यथाप्रतिरूप अवग्रह (स्थान संबंधी अनुमति) प्रदान की। प्रातिहारिक यावत् संस्तारक ग्रादि ग्रहण करने के लिये उपनिमंत्रित किया अर्थात् उनसे लेने की प्रार्थना की। __इसके बाद उन्होंने नाम एवं गोत्र पूछकर (चित्त सारथी की आज्ञा का) स्मरण किया फिर एकान्त में वे परस्पर एक दूसरे से इस प्रकार बातचीत करने लगे-'देवानुप्रियो ! चित्त सारथी जिनके दर्शन की आकांक्षा करते हैं, जिनके दर्शन की प्रार्थना करते हैं, जिनके दर्शन की स्पृहाचाहना करते हैं, जिनके दर्शन की अभिलाषा करते हैं, जिनका नाम, गोत्र सुनते ही हर्षित, सन्तुष्ट यावत् विकसितहृदय होते हैं, ये वही केशी कुमारश्रमण पूर्वानुपूर्वी से गमन करते हुए, एक गांव से दूसरे गांव में विहार करते हुए यहाँ आये हैं, यहाँ प्राप्त हुए है, यहाँ पधारे हैं तथा इसी सेयविया नगरी के बाहर मृगवन उद्यान में यथाप्रतिरूप अवग्रह ग्रहण करके यावत् विराजते हैं / अतएव हे देवानुप्रियो ! हम चलें और चित्त सारथी के प्रिय इस अर्थ को (केशी कुमारश्रमण के आगमन होने के समाचार को) उनसे निवेदन करें। हमारा यह निवेदन उन्हें बहुत ही प्रिय लगेगा।' एक दूसरे ने इस विचार को स्वीकार किया। इसके बाद वे वहाँ पाये जहाँ सेयविया नगरी, चित्त सारथी का घर तथा घर में जहाँ चित्त सारथी था / वहाँ आकर दोनों हाथ जोड़ यावत् चित्त सारथी को बधाया और इस प्रकार निवेदन किया-देवानुप्रिय ! आपको जिनके दर्शन की इच्छा है यावत् आप अभिलाषा करते हैं और जिनके नाम एवं गोत्र को सुनकर आप हर्षित होते हैं, ऐसे केशी कुमारश्रमण पूर्वानुपूर्वी से विचरते हुए यहाँ (मृगवन उद्यान में) पधार गये हैं यावत् विचर रहे हैं / चित्त का प्रदेशी राजा को प्रतिबोध देने का निवेदन २३२-तए णं से चित्ते सारही तेसि उज्जाणपालगाणं अंतिए एयम8 सोच्चा णिसम्म हडतुट्ठ जाव पासणाप्रो अभट्ठति, पायपीढायो पच्चोरहइ, पाउयानो प्रोमुयइ, एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ, अंजलिमउलियम्गहत्थे केसिकुमारसमणाभिमुहे सत्तट्ट पयाई अणुगच्छइ करयलपरिम्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं वयासो नमोऽत्थु णं परहंताणं जाव' संपत्ताणं नमोऽत्थ णं केसिस्स कुमारसमणस्स मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स / वदामि णं भगवतं तत्यगयं इहगए, पासउ मे ति कटु वंदइ नमसइ / ते उज्जाणपालए विउलेणं वत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेइ सम्माणेइ विउलं जीविद्यारिहं पीइदाणं दलयइ, पडिविसज्जेइ / कोड बियपुरिसे सहावेइ एवं बयासी-खियामेव भो! देवाणुप्पिया चाउग्घंटे प्रासरहं जुत्तामेव उवट्ठवेह जाव पच्चप्पिणह। तए णं ते कोडुबियपुरिसा जाव खिप्पामेव सच्छत्तं सज्झयं जाव उवटुवित्ता तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति / तए णं से चित्ते सारही कोडुबियपुरिसाणं अंतिए एयभट्ट सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ जाव 1 देखें सूत्र संख्या 199 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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