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________________ केशी कुमारश्रमण का सेयविया में पदार्पण ] [151 शब्द, स्पर्श यावत् (रस, रूप और गंध बहुल मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोगता हुआ) विचरने लगा। केशी कुमारश्रमरण का सेयविया में पदार्पण २३०-तए णं केसी कुमारसमणे अण्णया कयाइ पाडिहारियं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारगं पच्चप्पिणइ सावत्थीओ नगरीयो कोटगानो चेइयानो पडिनिक्खमइ पंचहि अणगार सहिं जाव विहरमाणे जेणेव के इय प्रद्ध जणवए, जेणेव सेविया नगरी, जेणेव मियवणे उज्जाणे, तेणेव उवागच्छइ, अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिहित्ता संजमेणं तवसा अपाणं भावेमाणे विहरति / २३०–तत्पश्चात किसी समय प्रातिहारिक (वापिस लौटाने योग्य) पोठ, फलक, शय्या, संस्तारक आदि उन-उनके स्वामियों को सौंपकर केशी कुमारश्रमण श्रावस्ती नगरो और कोष्ठक चैत्य से बाहर निकले / निकलकर पाँच सौ अन्तेवासो अनगारों के साथ यावत् विहार करते हुए जहाँ केकय. अर्ध जनपद था. उसमें जहां सेयविया नगरी थी और उस नगरो का मृगवन नामक उद्यान था, वहाँ आये। यथाप्रतिरूप अवग्रह (वसतिका की आज्ञा-अनुमति) लेकर संयम एवं तप से प्रा-मा को भावित करते हुए विचरने लगे। विवेचन-पीठ प्रादि को लौटाने के उपर्युक्त उल्लेख रो प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में साधु पीठ, फलक, संस्तारक आदि स्वयं गृहस्थ के यहाँ से गवेषणापूर्वक मांग कर लाते थे और उपयोग कर लेने के बाद स्वयं ही उनके स्वामियों को वापस लौटाते थे। २३१-तए णं सेवियाए नगरीए सिंघाडग महया जणसद्दे वा०' परिसा णिग्गच्छइ / तए णं ते उज्जाणपालगा इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणा हट्टतुट्ठ जाव हियया जेणेव केसी कुमारसमणे तेणेव उवागच्छन्ति, केसि कुमारसमणं वंदंति नमसंति, प्रहापडिरूव उग्गहं अणुजाणंति, पाजिरिएणं जाव संथारएणं उनिमंतति, पाम गोयं पृच्छति, प्रोधारेंति, एगंतं प्रवक्कमंति, अन्न एवं क्यासी-जस्स णं देवाणुप्पिया ! चित्ते सारही दंसणं कंखइ, दसणं पत्थेइ, दंसणं पीहेइ, देसणं अभिलसइ, जस्स णं णामगोयस्स वि सवणयाए हद्वतु? जाव हियए भवति, से णं एस केलो कुनारसमणे पुव्वाणुपुटिव चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे इहमागए, इह संपत्ते, इह समोरडे इहेव सेयवियाए णगरीए बहिया मियवणे उज्जाणे प्रहापडिरूव जाब विहरइ। तं गच्छामो गं देवाणुपिया ! चित्तस्स सारहिस्स एयम पियं निवेएमो, पियं से भवउ / अण्णमण्णस्स अंतिए एयमट्ठ पडिसुर्णेति / जेणेव सेयविया णगरी जेणेव चित्तस्स सारहिस्स गिहे, जेणेव चित्तसारही तेणेव उवागच्छंति, चित्तं साहि करयल जाव बद्धाति एवं वयासी-जस्स णं देवाणुप्पिया! दंसणं कंखंति जाव अभिलसंति, जस्स णं णामगोयस्स वि सवणयाए हट्ट जाव भवह, से णं अयं केसी कुमारसमणे पुवाणुपुचि चरमाणे समोसढे जाव विहरइ / 231. तत्पश्चात् (केशी कुमारश्रमण का आगमन होने के पश्चात्) सेयविया नगरी के शृगाटकों आदि स्थानों पर लोगों में बातचीत होने लगी यावत् परिष वंदना करने निकली / वे 1. देखें सूत्र संख्या 214 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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