SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मणियों और तृणों को ध्वनियां] [77 १३९-हे गौतम ! जिस तरह शिविका (डोली, पालको) अथवा स्यन्दमानिका (बहली-सुखपूर्वक एक व्यक्ति के बैठने योग्य घोड़ा जुता यान-विशेष) अथवा रथ, जो छत्र, ध्वजा, घंटा, पताका और उत्तम तोरणों से सुशोभित, वाद्यसमूहवत् शब्द-निनाद करने वाले घुघरुनों एवं स्वर्णमयी मालाओं से परिवेष्टित हो, हिमालय में उत्पन्न अति निगड़-सारभूत उत्तम तिनिश काष्ठ से निमित एवं सुव्यवस्थित रीति से लगाये गये प्रारों से युक्त पहियों और धरा से सुसज्जित हो, सुदढ़ उत्तम लोहे के पट्टों से सुरक्षित पट्टियों वाले, शुभलक्षणों और गुणों से युक्त कुलीन अश्व जिसमें जुते हों जो रथ-संचालन-विद्या में अति कुशल, दक्ष सारथी द्वारा संचालित हो, एक सौ-एक सौ वाण वाले, बत्तीस तूणोरों (तरकसों) से परिमंडित हो, कवच से आच्छादित अग्र-शिखर-भाग बाला हो, धनुष बाण, प्रहरण, कवच आदि युद्धोपकरणों से भरा हो, और युद्ध के लिये तत्पर-सन्नद्ध योधानों के लिए सजाया गया हो, ऐसा रथ बारंबार मणियों और रत्नों से बनाये गये-फर्श वाले राजप्रांगण, अंतःपुर अथवा रमणीय प्रदेश में आवागमन करे तो सभी दिशा-विदिशा में चारों ओर उत्तम, मनोज्ञ, मनोहर, कान और मन को प्रानन्द-कारक मधुर शब्द-ध्वनि फैलती है। हे भदन्त ! क्या इन रथादिकों की ध्वनि जैसी ही उन तृणों और मणियों की ध्वनि है ? गौतम ! नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं है / (उनकी ध्वनि तो इनसे भी विशेष मधुर है।) १४०-से जहाणामए वेयालियवीणाए उत्तरमंदामुच्छियाए अंके सुपइट्टियाए कुसल नरनारिसुसंपरिग्गहियाए चंदणसारनिम्भियकोणपरिघट्टियाए युवरत्तावरत्तकालसमयंमि मंदाय-मंदायं वेइयाए, पवेइयाए, चलियाए, घट्टियाए, खोभियाए, उदीरियाए पोराला, मणुण्णा, मणहरा, कण्हमणनिव्वुइकरा सद्दा सम्वो समंता अभिनिस्सवंति, भवेयारूवे सिया? जो इण? सम?।। १४०---भदन्त ! क्या उन मणियों और तृणों की ध्वनि ऐसी है जैसी कि मध्यरात्रि अथवा रात्रि के अंतिम प्रहर में वादनकुशल नर या नारी द्वारा अंक-गोद में लेकर चंदन के सार भाग से रचित कोण (वीणा बजाने का दंड, डांडी) के स्पर्श से उत्तर-मंद मूर्च्छना वाली (रागरागिनी के अनुरूप तीव्र-मंद आरोह-अवरोह ध्वनियुक्त) वैतालिक वीणा को मंद-मंद ताड़ित, कंपित, प्रकंपित, चालित, घर्षित क्षुभित और उदीरित किये जाने पर सभी दिशाओं एवं विदिशाओं में चारों ओर उदार, सुन्दर, मनोज्ञ, मनोहर, कर्णप्रिय एवं मनमोहक ध्वनि गूजती है ? गौतम ! नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं है। उन मणियों और तृणों की ध्वनि इससे भी अधिक मधुर है। १४१–से जहानामए किन्नराण वा, किपुरिसाण वा, महोरगाण वा, गंधव्वाण वा, भद्दसालवणगयाणं वा, नंदणवणगयाणं वा, सोमणसवणगयाणं वा, पंडगवणगयाणं वा, हिमवंतमलयमंदरगिरिगृहासमन्नागयाण वा, एगो सन्निहियाणं समागयाणं सन्निसन्नाणं समुवविद्वाणं पमुइयपक्कीलियाणं गीयरइ गंधवहसियमणाणं गज्ज पज्जं, कत्थं, गेयं पयबद्ध, पायबद्ध उक्खितं पायंत मंदायं रोइयावसाणं सत्तसरसमन्नागयं' छद्दोसविप्पमुक्कं एक्कारसालंकारं अद्वगुणोववेयं, गुजाऽवंककुहरोवगूढं रत्तं तिट्ठाणकरणसुद्ध पगोयाणं, भवेयारूवे ? 1. पाठान्तर—अटूरससंपउत्तं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy