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________________ 78] | राजप्रश्नीयसूत्र १४१–भगवन् ! तो क्या उनकी ध्वनि इस प्रकार की है, जैसे कि भद्रशालवन, नन्दनवन, सौमनसवन अथवा पांडुक वन या हिमवन, मलय अथवा मंदरगिरि की गुफाओं में गये हुए एवं एक स्थान पर एकत्रित, समागत, बैठे हुए और अपने-अपने समूह के साथ उपस्थित, हर्षोल्लास पूर्वक क्रीड़ा करने में तत्पर, संगीत-नृत्य-नाटक-हासपरिहासप्रिय किन्नरों, किंपुरुषों, महोरगों अथवा गंधर्वो के गद्यमय-पद्यमय, कथनीय, गेय, पद-बद्ध, पादबद्ध, उत्क्षिप्त, पादान्त, मंद-मंद घोलनात्मक, रोचितावसान-सुखान्त, मनमोहक सप्त स्वरों से समन्वित, षड्दोषों से रहित, ग्यारह अलंकारों और आठ गुणों से युक्त गुंजारव से दूर-दूर के कोनों क्षेत्रों को व्याप्त करने वाले राग-रागिनी से युक्त / त्रि-स्थान-करण शुद्ध गीतों के मधुर बोल होते हैं ? / विवेचन-भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिष्क, और वैमानिक इन चार देवनिकायों में से किन्नर, किंपुरुष, महोरग और गंधर्व व्यंतरनिकाय के देव हैं। ये सभी प्रशस्त गीत, संगीत, नृत्य एवं नाट्य-कलापों के प्रेमी होते हैं / बालसुलभ क्रीड़ा और हास-परिहास, कोलाहल करने में इन्हें आनन्दानुभूति होती है / पुष्पों से बनाये हुए मुकुट, कुंडल आदि इनके प्रिय आभूषण हैं / सर्व ऋतुओं के सुन्दर सुगंधित पुष्पों द्वारा निर्मित वनमालाओं से इनके वक्षस्थल शोभित रहते हैं। ये अनेक प्रकार के चित्र-विचित्र रंग-बिरंगे पंचरंगे परिधान-वस्त्र पहनते हैं। ये सभी प्रायः सुमेरु पर्वत और हिमवंत प्रादि पर्वतों के रमणीय प्रदेशों में निवास करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में संगीत के स्वर, दोष और गुणों की संख्या का संकेत करने के लिये सत्तसरसमत्नागयं, छद्दोस विप्पमुक्कं, अट्ठगुणोववेयं पद दिये हैं / स्वरों आदि के नाम इस प्रकार हैं सप्तस्वर- 1. षड्ज, 2. ऋषभ, 3. गांधार, 4. मध्यम, 5. पंचम, 6. धैवत और 7. निषाद / षड्दोष-१. भीत, 2. द्रुत, 3. उप्पित्थ, 4. उत्ताल, 5. काकस्वर, 6. अनुनास / अष्टगुण-१. पूर्ण, 2. रक्त 3. अलंकृत 4. व्यक्त 5. अविघुष्ट, 6. मधुर, 7. सम 8. सुललित / १४२–हता सिया। १४२-हे गौतम ! हाँ, ऐसी ही मधुरातिमधुर ध्वनि उन मणियों और तृणों से निकलती है। वनखंडवौ वापिकाओं आदि का वर्णन--- १४३--तेसि णं वणसंडाणं तत्थ-तत्थ तहि तहि देसे से बहूईप्रो खुड्डा खुड्डियातो वावीयानो, पुक्खरिणीप्रो, .दीहियानो, गुजालियानो, सरपंतियानो, सरसरपंतियाओ, बिलतिओ, अच्छाप्रो सहामो रययामयकलापो, समतीरानो वयरामयपासाणानो तवणिज्जतलामो, सुवण्णसुज्झरययवालुयाओ वेरुलियमणिफालियपडलपच्चोयडामो, सुहोयारसुउत्तारामो. गाणामणितित्थसुबद्धाओ. चउक्कोणाश्रो, प्राणुषुव्वसुजातवप्पगंभीरसीयलजलामो, संछन्नपत्तभिसमुणालायो, बहुउप्पलकुमुयनलिणसुभगसोगंधियपोंडरीयसयवत्तसहस्सपत्तकेसरफुल्लोवचियानो छप्पयपरिभुज्जमाणकमलापो, अच्छविमलसलिलपुण्णाओ, पडिहत्थभमंतमच्छकच्छम-प्रणेगसउणमिहुणगपविचरितारो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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