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________________ [ राजप्रश्नीयसूत्र थी, अनिष्ट-उपद्रवों से रहित थी, सुभिक्ष होने से भिक्षुओं को सरलता से भिक्षा मिल जाती थी। लोग यहाँ विश्वासपूर्वक सरलता से रहते थे और दूसरे-दूसरे अनेक सैकड़ों प्रकार के' कुटुम्ब परिवारों के भी बसने से नगरी साताकारी समझी जाती थी। __ नट-नाटक करने वालों, नर्तक-नृत्य-नाच करने वालों, जल्ल-रस्सी पर चढ़कर कलाबाजियां दिखाने वालों, मल्ल-पहलवानों, मौष्टिक-पंजा लड़ाने वालों, विदूषकों, बहुरूपियों, कथक-कथा कहानी कहने वालों, प्लवक-पानी में तैरने वालों, उछल-कूद करने वालों, लासक - रास रचने वालों, स्वांग धरने वालों, आख्यायिक- शुभ-अशुभ शकुन बताने वालों, लंख-ऊंचे बांस पर चढ़कर कलाबाजी, खेल करने वालों, मंख-चित्र दिखाकर भीख मांगने वालों, शहनाई बजाने वालों, तम्बूरा बजाने वालों और खड़ताल बजाने वालों से नगरी अनुचरित - व्याप्त थी। आरामों लताकुजों, उद्यानों-बाग बगीचों, कूपों, जलाशयों, दीधिकारों-लंबे आकार की बाड़ियों और सामान्य बावड़ियों प्रादि से युक्त होने के कारण वह नगरी रमणीय थी। __ सुरक्षा के लिये नगरी को चारों ओर से घेरती हुई गोलाकार खात (खाई) थी, जो विस्तृत, तल न दिखे ऐसी गहरी और ऊपर चौड़ी एवं नीचे संकड़ी थी और खात के बाहर ऊपर नीचे समान रूप से खुदी हुई परिखा थी। खाई के बाद नगरी को चारों ओर से घेरता हुआ धनुष जैसा वक्राकार परकोटा था / जो चक्र, गदा, भुसुडि (शस्त्र विशेष) अवरोध, शतघ्नी और मजबूत, सम-युगल किवाड़ों सहित था / जिससे नगरी में शत्रुओं का प्रवेश करना कठिन था। इस परकोटे का ऊपरी भाग गोल-गोल कंगूरों से शोभायमान था और वहां पहरेदारों के लिये ऊंची-ऊंची अटारियां-मीनारें बनी हुई थीं। किले और नगरी के बीच आने-जाने का रास्ता पाठ-हाथ चौड़ा था। प्रवेश-द्वार पर तोरण बंध हुए थे। ___ नगरी के राजमार्ग सम, सुन्दर और आकर्षक थे और द्वारों में निपुण शिल्पियों द्वारा बनायी गई अर्गलाओं एवं इन्द्रकीलियों वाले किवाड़ लगे हुए थे। नगरी के बाजार भांति-भांति की क्रय-विक्रय करने योग्य वस्तुओं और व्यापारियों से व्याप्त रहते थे और व्यापार के केन्द्र--मंडी थे। जिससे अलग-अलग कामों के जानकार शिल्पियों, कारीगरों, मजदूरों का वहां सुखपूर्वक निर्वाह होता था। नगरी में कितने ही मार्ग सिंघाड़े जैसे त्रिकोण और कितने ही त्रिकों (तिराहों), चतुष्कों (चौराहों) और चत्वरों (चार से भी अधिक मार्ग) आदि वाले थे और दुकानें बिक्री करने योग्य अनेक प्रकार की रमणीय वस्तुओं से भरी रहती थी। नगरी के राजमार्ग देश-देश के राजा-महाराजाओं आदि के आवागमन से और साधारण मुल में इसके लिये 'अणेगकोडि' शब्द है। आचार्य मलयगिरि सूरि ने इसका अर्थ अनेककोटिभिः अनेक कोटिसंख्याकै: अर्थात अनेक कोटि यानि अनेक करोड़ संख्या किया है। परन्तु इस अर्थ की बजाय अनेक कोटि-अनेक प्रकार ऐसा अर्थ करना यहां विशेष उचित लगता है। क्योंकि कोटि शब्द का प्रकार अर्थ जैन प्रागमों में सुप्रतीत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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