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________________ आरम्भ मार्ग अनेक सुन्दर अश्वों, मदोन्मत्त हाथियों, रथों, पालखियों, और म्यानों के आने-जाने से व्याप्त रहते थे। वहां के जलाशय, तालाब आदि विकसित कमल-कमलिनियों से सुशोभित थे और मकान, भवन आदि सफेद मिट्री-चने आदि से पूते हए होने से बड़े सुन्दर दिखते थे। जिससे नगरी की शोभा अनिमेष दृष्टि से देखने लायक थी। वह मन को प्रसन्न करने वाली थी, बार-बार देखने योग्य थी, मनोहर रूप वाली थी और असाधारण सौन्दर्य वाली थी। ___ विवेचन-यहां औपपातिक सूत्र का प्राधार लेकर आमलकप्पा नगरी की समृद्धि का वर्णन किया है। प्रामलकप्पा-भगवान् महावीर ने जिन नगरों में चातुर्मास किये हैं, उनमें तथा सूत्रों में बताई गई आर्य देश की राजधानियों में इसका उल्लेख नहीं है। इसी प्रकार भगवान् के विहार स्थानों में भी आमलकप्पा के नाम का संकेत नहीं है। किन्तु इस राजप्रश्नीय सूत्र के उल्लेख से इतना कहा जा सकता है कि केवलज्ञानी होने के अनन्तर भगवान् ने जिन स्थानों पर विहार किया, संभवतः उनमें इसका नाम हो / किन्तु वर्तमान में वह नगरी कहां है और उसका क्या नाम है ? यह अभी भी अज्ञात है। __हलसय-सहस्स-संकिट्ठ-विशेषण से यह स्पष्ट किया है कि हमारा देश कृषिप्रधान है और कृषि अहिंसक संस्कृति की आधार है / प्राचीन समय में अन्यान्य विषयों की तरह कृषि-विद्या से सम्बन्धित प्रभूत साहित्य था। जिसमें कृषि से साक्षात सम्बन्ध रखने वाले-भूमिपरीक्षा, भूमिसुधारविधि, बीजरक्षणविधि, वृक्षों के रोग और उनके निरोध के लिये औषधोपचार आदि अनेक विषयों को विस्तृत चर्चा रहती थी। आज के कृषक को चाहे कोई मूढ-अज्ञ कह दे, परन्तु उस समय का कृषक मूढ नहीं किन्तु प्राज्ञ माना जाता था / जो 'पण्णत्तसेउसीमा' पद के उल्लेख से स्पष्ट है। कुक्कुडसंडेयगामपउरा–व्याकरण महाभाष्य में ग्रामों की समीपता सूचित करने के लिये ग्रामों के विशेषण के रूप में 'कुक्कुटसंपात्याः ग्रामा:' उदाहरण रखा है। उपर्युक्त वर्णन से यह निश्चित ज्ञात होता है कि प्राचीनकाल के ग्राम अवश्य ही कुक्कुटसंपात्य ही थे अर्थात् एक ग्राम का मुर्गा दूसरे ग्राम में पहुँच सके ऐसा निकटवर्ती गांव / आज भी सूदुर क्षेत्र में कृषिप्रधान गांव इसी प्रकार के कुक्कुट-संपात्य हैं। जुवइ-अर्थात् पण्य तरुणी / यद्यपि आज इस शब्द का प्रयोग वेश्या के लिये रूढ हो गया है और उसे समाज बहिष्कृत मानकर तिरस्कार, घृणा और हेय दृष्टि से देखता है / लेकिन यह शब्द तत्कालीन समाज की एक संस्थाविशेष का बोध कराता है। जो अपने कला, गुण और रूपसौन्दर्य के कारण राजा द्वारा सम्मानित की जाती थी। गूणी-जन प्रशंसा करते थे। कला के अर्थी कला सीखने के लिये उससे प्रार्थना करते थे और उसका आदर करते थे / सम्भवत: इसी कारण उसका यहां उल्लेख किया हो। नगरी में रिश्वतखोर आदि कोई नहीं था इत्यादि कथन में उसके उज्ज्वल पक्ष का ही उल्लेख किया गया है / यह साहित्यकारों की प्रणाली प्राचीनकाल से चली आ रही है। परन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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