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________________ [ राजप्रश्नीयसूत्र मानवस्वभाव को देखते यह पूर्णतः सम्भव जैसा प्रतीत नहीं होता है। तथापि नगरी के इस वर्णन से यह विदित होता है कि इसमें रहने वाले अपेक्षाकृत सभ्य, शिष्ट, सुसंस्कृत एवं प्रामाणिक थे। खायफलिहा-खात और परिखा। वैसे तो ये दोनों शब्द प्रायः समानार्थक माने जाते हैं। लेकिन प्राचार्य मलयगिरि ने इनका अन्तर स्पष्ट किया है कि खात तो ऊपर चौड़ी और नीचे-नीचे संकडी होती जाती है। जबकि परिखा (खाई) ऊपर से लेकर नीचे तक एक जैसी सम-सीधी खदी हुई होती है। प्राचीनकाल में नगर की रक्षा के लिये परकोटे से पहले खाई होती थी, जिसमें पानी भरा रहता था और खाई से पहले खात / खात में अंगारे अथवा अलसी आदि चिकना धानविशेष भर देते थे कि जिस पर पैर रखते ही मनुष्य तल में चला जाता है। इस प्रकार खात भी नगररक्षा का एक साधन था। चैत्य-वर्णन २-तीसे णं प्रामलकप्पाए नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए अंबसालवणे नामं चेइए होत्था-[चिरातीते पुन्चपुरिसपण्णत्ते पोराणे सहिए कित्तिए नाए सच्छत्ते सज्झए सघंटे सपडागे पडागाइपडागमंडिए सलोमहत्थे कयवेड्डिए लाइय-उल्लोइयमहिए गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिण्णपंचंगुलितले उचियचंदणकलसे चंदणघडसुकय-तोरणपडिदुवारदेसभाए प्रासित्तोसित्तविउलवट्टबग्घारियमल्लदामकलावे पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुष्फपुजोवयारकलिए कालागुरु-पवरकुदुरुक्कतुरुक्क-धूवमघमघंतगंधुद्धयाभिरामे सुगंधवरगंधिए गंधवट्टिभूए णड-गट्टग-जल्ल-मल्ल-मुट्टिय. वेलंबग-पग-कहग-लासग-प्राइक्खग-लंख-मंख-तूणइल्ल-तुंबवीणिय-भुयग-मागहपरिगए बहुजणजाणवयस्स विस्सुय कित्तिए बहुजणस्स आहुस्स प्राणिज्जे पाहुणिज्जे अच्चणिज्जे वंदणिज्जे नमसणिज्जे पूणिज्जे सक्कारणिज्जे सम्माणणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पज्जुवासणिज्जे दिवे सच्चे सच्चोवाए जागसहस्सभागपडिच्छए, बहुजणो अच्चेइ पागम्म अंबसालवणचेइयं अंबसालवणचेइयं / ] उस आमलकप्पा नगरी के बाहर उत्तरपूर्व दिक्कोण अर्थात् ईशान दिशा में पाम्रशालवन नामक चैत्य था / वह चैत्य बहुत प्राचीन था / पूर्व पुरुष-पूर्वज, बड़े-बूढ़े भी उसको इसी प्रकार का कहते पा रहे थे। पूराना था। प्रसिद्ध था। अथवा अनेक परिवारों की आजीविका का साधन था / विख्यात था। दूर-दूर तक उसकी कीति फैली हुई थी, उसके नाम से सभी परिचित थे। छत्र, ध्वजा, घंटा, पताकाओं से मंडित था। उसके शिखर पर अनेक छोटी बड़ी पताकायें लहराती रहती थीं। मोर पंखों की पीछियों से युक्त था। उसके बीच वेदिका बनी हुई थी। आंगन गोबर से लिपा रहता था और दीवालें सफेद मिट्टी से पुती हुई थी। दीवालों पर गोरोचन और सरस रक्त चंदन के थापे - हाथे लगे हुए थे। जगह-जगह चंदन चर्चित कलश रखे थे। द्वार-द्वार पर चंदन के बने घट रखे थे और अच्छी तरह से बनाये हुए तोरणों के द्वारा दरवाजों के ऊपरी भाग सुशोभित थे। ऊपर से लेकर नीचे तक लटकती हुई गोलाकार में गुथी हुई मालाओं से दीवालें मंडित थी / स्थान-स्थान पर रंग बिरंगे सरस, सुगंधित पुष्प-पुञ्जों से अनेक प्रकार के मांडने मड़े हुए थे। धूपदानों में कृष्णागुरुसुगंधित काष्ठ-विशेष, श्रेष्ठ कुदरू, तुरुष्क-लोबान और धूप आदि के जलने से महकता रहता था और उस महक के उड़ने से बड़ा सुहावना लगता था / श्रेष्ठ सुगंध से सुवासित होने के कारण गंध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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