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________________ सिद्धायतन का प्रमार्जन ] [ 117 (झारी) एवं वहाँ के उत्पल यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र कमलों को लिया। फिर नंदा पुष्करिणी से बाहर निकला / बाहर निकलकर सिद्धायतन की ओर चलने के लिये उद्यत हुआ। सिद्धायतन का प्रमार्जन - १९७-तए णं ते सरियाभं देवं चत्तारि य सामाणियसाहस्सोप्रो जाव सोलस पायरक्खदेवसाहस्सोमो अन्ने य बहवे सरियाभविमाणवासिणो जाव देवीओ य अप्पेगतिया देवा उप्पलहत्थगा जाव सय-सहस्सपत्त-हत्थगा सूरियाभं देवं पिटुतो समणुगच्छति। तए णं तं सूरियाभं देवं बहवे प्राभिनोगिया देवा य देवीप्रो य अध्ये गतिआ कलसहत्थगा जाव अप्पेगतिया धूवकडुच्छयहत्थगता हट्टतुट्ठ जाव सूरियाभं देवं पिट्ठतो समणुगच्छति / १९७–तब उस सूर्याभदेव के चार हजार सामानिक देव यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देव तथा कितने ही अन्य बहुत से सूर्याभविमानवासी देव और देवी भी हाथों में उत्पल यावत् शतपथ-सहस्रपत्र कमलों को लेकर सूर्याभदेव के पीछे-पीछे चले / तत्पश्चात् उस सूर्याभदेव के बहुत-से आभियोगिक देव और देवियाँ हाथों में कलश यावत् धूप-दानों को लेकर हृष्ट-तुष्ट यावत् विकसितहृदय होते हुए सूर्याभदेव के पीछे-पीछे चले / १९८-तए णं से सरिया देवे चहि सामाणिगसाहस्सीहिं जाव अन्नेहि य बहूहि य जाद देवेहि य देवी हि य सद्धि संपरिबुडे सव्विड्डीए जाव णातियरवेणं जेणेव सिद्धायतणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छिता सिद्धायतणं पुरस्थिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति, अणुपविसित्ता जेणेव देवच्छंदए जेणेव जिणपडिमानो तेणेव उवागच्छति, उवाच्छित्ता जिणपडिमाणं पालोए पणामं करेति, करिता लोमहत्थगं गिण्हति, गिण्हित्ता जिणपडिमाणं लोमहत्थएणं पमज्जइ, पमज्जित्ता जिणपडिमानो सुरभिणा गंधोदएणं हाणेइ, हाणित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाइं अणुलिपइ, अणुलिपइत्ता सुरभिगंधकासाइएणं गायाइं लूहेति, लूहित्ता जिणपडिमाणं प्रहयाई देवदूसजुयलाई नियंसेइ, नियंसित्ता पुप्फारुहणंमल्लारुहणं-गंधारहणं-चुण्णाहणं-वन्नारुहणं-याभरणारहणं करेइ, करित्ता भासत्तोसत्तविउलवट्टबग्घा. रियमल्लदामकलावं करेड. मल्लदामकलावं करेता कयम्गहगहियकरयलपब्भविप्पमक्केणं दसबद्धवन्नेणं कुसुमेणं मुक्कपुष्फपुजोवयारकलियं करेति, करित्ता जिणपडिमाणं पुरतो अच्छेहि सण्हेहि रययामहि प्रच्छरसातंदुलेहिं अट्ठ मंगले प्रालिहइ, तंजहा-सोस्थियं जाव दप्पणं / __तयाणंतरं च णं चंदप्पभवइरवेरुलियविमलदंडं कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं कालागुरुपवरकुदुरुक्क-तुरुक्क-धूव-मघमघंतगंधुत्तमाणुविद्ध च धूवर्वाट्ट विणिम्मुयंतं वेरुलियमयं कडुच्छुयं पगहिय पयत्तेणं धूवं दाऊण जिणवराणं अट्ठसयविसुद्धगंथजुत्तेहि अत्थजुत्तेहि अपुणरुत्तेहि महावितेहि संथुणइ, संथुणित्ता सत्तट्ठ पयाई पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता वामं जाणु अंचेइ अंचित्ता दाहिणं जाणुधरणितलंसि निहट्ट तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि निवाडेइ निवाडित्ता ईसि पच्चुण्णमइ, पच्चण्णमित्ता करयलपारग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट एवं वयासी १९८-तत्पश्चात् सूर्याभदेव चार हजार सामानिक देवों यावत् और दूसरे बहुत से देवों और देवियों से परिवेष्टित होकर अपनी समस्त ऋद्धि, वैभव यावत् वाद्यों की तुमुल ध्वनिपूर्वक जहाँ सिद्धायतन था, वहाँ आया। पूर्वद्वार से प्रवेश करके जहाँ देवछंदक और जिनप्रतिमाएँ थीं वहाँ आया। वहाँ आकर उसने जिनप्रतिमाओं को देखते ही प्रणाम करके लोममयी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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