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________________ तज्जीव-तच्छरीरवाद मंडन-खंडन ] [ 181 सो चेव णं भंते ! पुरिसे जुन्ने जराजज्जरियवेहे सिढिलवलितयाविणट्ठगत्ते दंडपरिग्गहियगहत्थे पविरलपरिसडियदंतसेढी प्राउरे किसिए पिवासिए दुब्बले किलते नो पमू एगं महं अयमारगं वा जाव परिवहित्तए, जति णं भंते ! सच्चेव पुरिसे जुन्ने जराजज्जरियवेहे जाव परिकिलते पभू एगं महं अयभारं वा जाव परिवहित्तए तो गं सद्दहेज्जा तहेव, जम्हा णं भंते ! से चेव पुरिसे जुन्ने जाव किलते नो पभ एगं महं प्रयभारं वा जाव परिवहितए, तम्हा सुपतिट्टिता मे पइण्णा तहेव / २५४--इस उत्तर को सुनकर प्रदेशी राजा ने पुन: केशी कुमारश्रमण से कहा--हे भदन्त ! यह तो प्रज्ञाजन्य उपमा है, वास्तविक नहीं है। किन्तु मेरे द्वारा प्रस्तुत हेतु से तो यही सिद्ध होता है कि जीव और शरीर में भेद नहीं है / वह हेतु इस प्रकार है भदन्त ! कोई एक तरुण यावत् कार्यक्षम पुरुष एक विशाल वजनदार लोहे के भार को, सीसे के भार को या रांगे के भार को उठाने में समर्थ है अथवा नहीं है ? केशी कुमारश्रमण-हाँ समर्थ है। प्रदेशी-लेकिन भदन्त ! जब वही पुरुष वृद्ध हो जाए और वृद्धावस्था के कारण शरीर जर्जरित, शिथिल, झुरियों वाला एवं अशक्त हो, चलते समय सहारे के लिए हाथ में लकड़ी ले, दंतपंक्ति में से बहुत से दांत गिर चुके हों, खाँसी, श्वास आदि रोगों से पीड़ित होने के कारण कमजोर हो, भूख-प्यास से व्याकुल रहता हो, दुर्बल और क्लान्त-थका-मांदा हो तो उस वजनदार लोहे के भार को, रांगे के भार को अथवा सीसे के भार को उठाने में समर्थ नहीं हो पाता है / हे भदन्त ! यदि वही पुरुष वृद्ध, जरा-जर्जरित शरीर यावत् परिक्लान्त होने पर भी उस विशाल लोहे के भार आदि को उठाने में समर्थ होता तो मैं यह विश्वास कर सकता था कि जीव शरीर से भिन्न है और शरीर जीव से भिन्न है, जीव और शरीर एक नहीं हैं। लेकिन भदन्त ! वह पुरुष वृद्ध यावत् क्लान्त हो जाने से एक विशाल लोहे के भार आदि को उठाने में समर्थ नहीं है / अतः मेरी यह धारणा सुसंगत-समीचीन है कि जीव और शरीर दोनों एक ही हैं, किन्तु जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं। २५५-तए णं केसी कुमारसमणे पएसि रायं एवं वयासी-- से जहाणामए के पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोवगए णवियाए विहंगियाए, णवएहि सिक्कएहि, णवहि पच्छिपिंडएहिं पहू एगं महं अयभारं जाव (वा तउयभारं वा सोसगभारं वा) परिवहित्तए ? हंता पमू। पएसी ! से चेव णं पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोवगए जुन्नियाए दुब्बलियाए घुणक्खइयाए विहंगियाए जुण्णएहिं दुब्बलएहि घुणक्खइएहि सिढिलतयापिणद्धहि सिक्कएहि, जुण्णएहिं दुब्बलिएहि घुणखइएहि पछिपिडएहि पभू एगं महं प्रयभारं वा जाव परिवहित्तए ? जो तिणठे समठे। कम्हा गं? भंते ! तस्स पुरिसस्स जुन्नाइं उवगरणाई भवंति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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