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________________ 60 [ राजप्रेश्नीयसूत्र ११२-तत्पश्चात् उस सूर्याभदेव ने अपनी सब दिव्य देव ऋद्धि, दिव्य देवाति और दिव्य देवानुभाव-प्रभाव को समेट लिया--अपने शरीर में प्रविष्ट कर लिया और शरीर में प्रविष्ट करके क्षणभर में अनेक होने से पूर्व जैसा अकेला था वैसा ही एकाकी बन गया / इसके बाद सूर्याभ देव ने श्रमण भगवान महावीर को दक्षिण दिशा से प्रारम्भ करके तीन वार प्रदक्षिणा को, वन्दन-नमस्कार किया / वन्दना-नमस्कार करके अपने पूर्वोक्त परिवार सहित जिस यान-विमान से आया था उसी दिव्य यान-विमान पर आरुढ़ हुआ। प्रारुढ़ होकर जिस दिशा सेजिस ओर से आया था, उसी ओर लौट गया। गौतमस्वामी की जिज्ञासाः भगवान का समाधान 113-- भंते' त्ति भयवं गोयमे समणं भगवंतं महावीरं वंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसिता एवं क्यासी'--सूरियाभस्स णं भंते ! देवस्स एसा दिवा देविड्डी दिव्वा देवज्जुती दिब्वे देवाणुभावे कहि गते ? कहि अणुष्पवि?? 1. कहीं कहीं यह पाठान्तर देखने में माता है-- __ 'तेणं कालेणं तेण समएणं समणस्स भगवो महावीरस्स जि? अन्तेवासी इंदभूई नाम अणगारे गोयमसगोत्ते सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए वज्जरिसहनारायसंघयणे कणगपुलगनिघसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छुढसरीरे संखित्तविपुलतेयलेस्से चउदसपुब्बी चउनाणोवगए सब्वक्खरसन्निवाई समणस्स भगवतो महावीरस्स अदूरसामंतं उडुढं जाण ग्रहोसिरे झाणकोट्टोबगए संजमेण तवसा अप्पाण भावेमाणे विहरइ / तए णं से भगवं गोयमे जायसड्ढे जायसंसए जायकोउहल्ले उप्पन्नसड्ढे उत्पन्नसंसए उप्पन्नकोउहल्ले संजायसड्ढे संजायसंसए संजायकोउहल्ले समुप्पण्णसड्ढे समुप्पण्णसंसए समुप्पण्णकोउहल्ले उट्टाए उट्ठइ उदाए उद्वित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवत महावीर तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेति, तिक्खुत्तो प्रायाहिणपयाहिणं करेत्ता वंदति नमसति बंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी 'उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी-शिप्य गौतम गोत्रीय, सात हाथ ऊंचे, समचौरस संस्थान एवं वज्र ऋषभनाराच संहनन वाले, कसौटी पर खींची गई स्वर्ण रेखा तथा कमल की केशर के समान गौरवर्ण वाले, उग्रतपस्वी, कर्मवन को दग्ध करने के लिये अग्निवत् जाज्वल्पमान तप वाले, तप्त तपस्वी---ग्रात्मा को तपानेवाले, महातपस्वी-दीर्घतप करनेवाले, उदार-प्रधान, घोर-कषायादि के उन्मूलन में कठोर, घोरगुण-दूसरों के द्वारा दुरनुचर मूलोत्तर गुणों से सम्पन्न घोरतपस्वी-बड़ी बड़ी तपस्यायें करने वाले, घोर ब्रह्मचर्यवासी-अन्यों के लिये कठिन ब्रह्मचर्य में लीन, शारीरिक संस्कारों और ममत्व का त्याग करने वाले, विपुल तेजोलेश्या को संक्षिप्त करके शरीर में समाहित करने वाले, चौदह पूर्वो के ज्ञाता, मति आदि मनपर्याय पर्यन्त चार ज्ञानों से समन्वित, सर्व अक्षरों और उनके संयोगजन्य रूपों को जानने वाले गौतम नामक अनगार श्रमण भगवान महावीर से न अतिदूर और न अति समीप अर्थात् उचित स्थान में स्थित होकर ऊपर घुटने और नीचा मस्तक रखकर-मस्तक नमाकर ध्यान रूपी कोष्ठ में विराजमान होकर संयम तप से प्रात्मा को भावित करते हुए विचरते थे। ___तत्पश्चात् भगवान् गौतम को तत्त्वविषयक श्रद्धा-जिज्ञासा-हुई, सशय हुआ, कुतूहल हुया, श्रद्धा उत्पन्न हुई, सशय उत्पन्न हुया, कुतूहल उत्पन्न हुग्रा, विशेषरूप से श्रद्धा उत्पन्न हुई, विशेषरूप से सशय उत्पन्न हया विशेष रूप से कुतूहल उत्पन्न हुआ, विशेष रूप से श्रद्धा उत्पन्न हुई, विशेष रूप से संशय उत्पन्न हुया और विशेष रूप से कुतुहल उत्पन्न हुअा। तब अपने स्थान से उठ खड़े हुए, और उठकर जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराज रहे थे, वहां आये, वहां पाकर दक्षिण दिशा से प्रारम्भ कर श्रमण भगवान महावीर को प्रदक्षिणा की। तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा करके वन्दन और नमस्कार किया, वन्दन नमस्कार करके इस प्रकार कहा-निवदेन किया--1' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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