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________________ नाट्याभिनय का उपसंहार] [59 विवेचन-सूत्र संख्या 107-110 पर्यन्त नाटकों का प्रदर्शन करने के पश्चात् उपसंहार रूप चार प्रकार के वाद्यों को बजाने, संगीतों को गाने एवं नृत्यों और अभिनयों को करने का उल्लेख किया है। वाद्यादि अभिनय पर्यन्त चार-चार प्रकारों को बतलाने का कारण यह है कि ये उन-उनके मूल हैं / अर्थात् वाद्यों, राग-रागनियों आदि के अलग-अलग नाम होने पर भी वे सभी मुख्य-गौण भाव से इन चार प्रकारों के ही विविध रूप हैं / प्रस्तुत में तत प्रादि शब्दों के वाद्यों के उत्क्षिप्त आदि शब्दों से संगीत के और अंचित आदि शब्दों से नृत्य के चार-चार भेद और उनके सामान्य अर्थ तो समझ लिये जा सकते हैं तथा इसी प्रकार अभिनय के जो चार प्रकार बतलाये है उनमें से दृष्र्टान्तिक अभिनय-किसी प्रकार के दृष्टान्त का अभिनय / प्रत्यन्त का अर्थ म्लेच्छदेश है ('प्रत्यन्तो म्लेच्छमण्डल:'-अभिधान चिन्तामणि कोश 4 श्लोक 18) / भोट (भूटान) आदि देशों की म्लेछ देशों में गणना है / इन देशों के निवासियों और उनके आचरण अथवा किसी प्रसंग आदि का अभिनय प्रात्यंतिक अभिनय है। सामान्य प्रकार के अभिनय को सामान्यतोपनिपातनिक और लोक के मध्य या अन्त सम्बन्धी अभिनय को अन्तर्मध्यावसानिक अभिनय कहते हैं / यह अभिनय के प्रकारसूचक शब्दों का शब्दार्थमात्र है / परन्तु उन सभी के विशेष अर्थ को समझने के लिए संगीत तथा अभिनय विशारदों एवं नाट्यशास्त्र से जानकारी प्राप्त करना चाहिये। १११-तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारियायो य गोयमादियाणं समणाणं निग्गंथाणं दिव्वं देविड्डि दिव्वं देवजुति दिव्वं देवाणुभावं दिव्वं बत्तीसइबद्ध नाडयं उवदंसित्ता समणं भगवंतं महावीरं तिक्खुत्तो प्रायाहिणपयाहिणं करेंति, करित्ता बंदति नमसंति, बंदित्ता नमंसिता जेणेव सरियाभे देवे तेणेव उवागच्छंति, उवाच्छित्ता सूरियाभं देवं करयलपरिमाहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु जएणं विजएणं वद्धाति वद्धावित्ता एवं प्राणत्तियं पच्चप्पिणंति / १११-तत्पश्चात् उन सभी देवकुमारों और देवकुमारियों ने गौतम आदि श्रमण निर्गन्थों को दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव प्रदर्शक बत्तीस प्रकार की दिव्य नाट्यविधियों को दिखाकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वन्दननमस्कार करने के पश्चात् जहाँ अपना अधिपति सूर्याभदेव था वहाँ आये। वहाँ आकर दोनों हाथ जोड़कर सिर पर प्रावर्तपूर्वक मस्तके पर अंजलि करके सूर्याभदेव को 'जय विजय हो' शब्दोच्चारणों से बधाया और बधाकर आज्ञा वापस सौंपी, अर्थात् निवेदन किया कि आपकी आज्ञा के अनुसार हम श्रमण भगवन् महावीर आदि के पास जाकर बत्तीस प्रकार की दिव्य नाट्यविधि दिखा आये हैं / ११२-तए णं से सूरिया देवे तं दिव्वं देविति, दिव्वं देवजुई, दिग्वं देवाणुभावं पडिसाहरइ, पडिसाहरेत्ता खणेणं जाते एगे एगभूए / तए णं से सूरियाभे देवे समणं भगवंतं महावीरं तिक्खुत्तो प्रायाहिणपयाहिणं करेइ, बंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता नियगपरिवालसद्धि संपरिकुडे तमेव दिग्वं जाणविमाणं दुरूहति दुरूहिता जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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