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________________ 212] [राजप्रश्नीयसूत्र से णं तथारूवाणं थेराणं अंतिए केवलं बोहि बुझिहिति, केवलं मुंडे भवित्ता अगारामो अणगारियं पब्वइस्सति, से णं अणगारे भविस्सइ ईरियासमिए जाव सुहुययासणो इव तेयसा जलते / तस्स णं भगवतो अणत्तरेणं णाणणं एवं सणणं चरित्तेणं प्रालएणं विहारेणं प्रज्जवेणं महवेणं लाघवेणं खन्तीए गुत्तीए मत्तीए अणत्तरेणं सव्वसंजमसुचरियतवफलणिवाणमग्गेण अपाणं भावेमाणस्स अणते अणुत्तरे कसिणे पडिपुण्णे निरावरणे णिवाघाए केवलवरनाणदंसणे समुप्पज्जिहिति / तए णं से भगवं परहा जिणे केवलो भविस्सइ सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स परियायं जाणहिति तं०-प्रागति गति ठिति चवणं उववायं तक्कं कडं मणोमाणसियं खइयं भुत्तं पडिसेवियं प्रावीकम्म रहोकम्मं अरहा अरहस्सभागी तं तं मणवयकायजोगे बट्टमाणाणं सवलोए सबजीवाणं सवभावे जाणमाणे पासमाणे विहरिस्सइ / / तए णं दढपइन्ने केवली एयारवेणं विहारेणं विहरमाणे बहूई वासाइं केवलिपरियागं पाउणित्ता अप्पणो पाउसेसं प्राभोएत्ता बहूई भत्ताई पच्चक्खाइस्सइ, बहूई भत्ताई अणसणाए छेइस्सइ, जस्सट्टाए कीरइ जग्गभावे केसलोचबंभचेरवासे अण्हाणगं प्रदंतवणं अणुवहाणगं भूमिसेज्जाप्रो फलहसेज्जासो परघरपवेसो लद्धावलद्धाई माणावमाणाई परेसि होलणाम्रो निदणाप्रो खिसणाप्रो तज्जणानो ताडणाम्रो गरहणामो उच्चावया विरूवरूवा बावीसं परीसहोवसग्गा गामकंटगा अहियासिज्जति तमझें पाराहेइ, चरिमेहि उस्सासनिस्सासेहि सिज्झिहिति मुच्चिहिति परिनिव्वाहिति सव्वदुक्खाणमंतं करेहिति / २८६-तब वह दृढ़प्रतिज्ञ दारक उन विपुल अन्न रूप भोग्य पदार्थों यावत् शयन रूप भोग्य पदार्थों में आसक्त नहीं होगा, गृद्ध नहीं होगा, मूच्छित नहीं होगा और अनुरक्त नहीं होगा। जैसे कि नीलकमल, पद्मकमल (सूर्यविकासी कमल) यावत् शतपत्र या सहस्रपत्र कमल कीचड़ में उत्पन्न होते हैं और जल में वद्धिगत होते हैं, फिर भी पंकरज और जल रज से लिप्त नहीं होते हैं, इसी प्रकार वह दृढ़प्रतिज्ञ दारक भी कामों में उत्पन्न हुआ, भोगों के बीच लालन-पालन किये जाने पर भी उन कामभोगों में एवं मित्रों, ज्ञातिजनों, निजी-स्वजन-सम्बन्धियों और परिजनों में अनुरक्त नहीं होगा। किन्तु वह तथारूप स्थविरों से केवलबोधि-सम्यग्ज्ञान अथवा सम्यक्त्व का लाभ प्राप्त करेगा एवं मुडित होकर, गृहत्याग कर अनगार-प्रव्रज्या अंगीकार करेगा / अनगार होकर ईर्यासमिति आदि अनगार धर्म का पालन करते हुए सुहुत (अच्छी तरह से होम को गई) हुताशन (अग्नि) को तरह अपने तपस्तेज से चमकेगा, दीप्तमान होगा। इसके साथ ही अनुत्तर (सर्वोत्तम) ज्ञान, दर्शन, चारित्र, अप्रतिबद्ध विहार, आर्जव, मार्दव, लाघव, क्षमा, गुप्ति, मुक्ति (निर्लोभता) सर्व संयम एवं निर्वाण की प्राप्ति जिसका फल है ऐसे तपोमार्ग से आत्मा को भावित करते हुए उस भगवान् (दृढप्रतिज्ञ) को अनन्त, अनुत्तर, सकल, परिपूर्ण, निरावरण, निर्व्याघात, अप्रतिहत, सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त होगा। तब वे दृढ़प्रतिज्ञ भगवान् अर्हत, जिन, केवली हो जायेंगे। जिसमें देव, मनुष्य तथा असुर आदि रहते हैं ऐसे लोक की समस्त पर्यायों को वे जानेंगे / अर्थात् वे प्राणिमात्र की प्रागति--एक गति से दूसरी गति में आगमन को, गति-वर्तमान गति को छोड़कर अन्यगति में गमन को, स्थिति, च्यवन, उपपात (देव या नारक जीवों की उत्पत्ति-जन्म), तर्क (विचार), क्रिया, मनोभावों, क्षयप्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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