SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रदेशी द्वारा कृत राज्यव्यवस्था] [201 इसीलिये हे प्रदेशी ! मैंने यह कहा है कि तुम पहले रमणीय होकर बाद में अरमणीय मत हो जाना, जैसे कि वनखंड आदि हो जाते हैं। . ___विवेचन--प्रस्तुत सूत्रगत–'मा णं तुमं पएसी! पुदिव रमणिज्जे भवित्ता पच्छा परमणिज्जे भविज्जासि' वाक्य का टीकाकार आचार्य ने इस प्रकार आशय स्पष्ट किया है—केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से कहा कि हे राजन् ! जब तुम धर्मानुगामी नहीं थे तब दूसरे लोगों को दान देते थे तो दान देने की यह प्रथा अब भी चालू रखना। अर्थात् पूर्व में जैसे रमणीय-दानी थे उसी तरह अब भी रमणीय-दानी रहना किन्तु अरमणीय न होना / यदि अरमणीय हो जानोगे-संकुचित दृष्टि वाले हो जानोगे तो इससे निर्ग्रन्थप्रवचन की अपकीर्ति फैलेगी और हमें अन्तराय कर्म का बंध होगा। २७३–तए णं पएसी केसि कुमारसमणं एवं बयासी—णो खलु भंते ! प्रहं पुचि रमणिज्जे भवित्ता पच्छा प्ररमणिज्जे भविस्सामि, जहा वणसंडे इ वा जाव खलवाडे इ वा / प्रहं णं सेयवियानगरीपमुक्खाइं सतगामसहस्साई चत्तारि भागे करिस्सामि, एग भागं बलवाहणस्स दलइस्सामि, एगं भागं कुट्ठागारे छुभिस्सामि, एगं भागं अंतेउरस्स दलइस्सामि, एगेणं भागेणं महतिमहलयं कूडागारसालं करिस्सामि, तत्थ णं बहूहिं पुरिसेहि दिनभइभत्तवेयणेहि विउलं असणं० (पानं-खाइम-साइमं) उवक्खडावेत्ता बहूणं समण-माहण-भिक्खुयाणं-पंथियपहियाणं परिभाएमाणे बहहिं सीलव्वयगुणवयवेरमणपच्चक्खाणपोसहोववासस्स जाव विहरिस्सामि त्ति कटु जामेव दिसि पाउन्मूए तामेव दिसि पडिगए। २७३–तब प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से इस प्रकार निवेदन किया-भदन्त ! आप द्वारा दिये गये वनखंड यावत् खलवाड़ के उदाहरणों की तरह में पहले रमणीय होकर बाद में अरमणीय नहीं बनगा। क्योंकि मैंने यह विचार किया है कि सेयावियानगरी आदि सात हजार ग्रामों के चार विभाग करूगा। उनमें से एक भाग राज्य की व्यवस्था और रक्षण के लिये बल (सेना) और वाहन के लिये दूंगा, एक भाग प्रजा के पालन हेतु कोठार में अन्न आदि के लिये रखू गा, एक भाग अंतःपुर के निर्वाह और रक्षा के लिये दूगा और शेष एक भाग से एक विशाल कुटाकार शाला बनवाऊंगा और फिर बहुत से पुरुषों को भोजन, वेतन और दैनिक मजदूरी पर नियुक्त कर प्रतिदिन विपुल मात्रा में अशन, पान, खादिम, स्वादिम रूप चारों प्रकार का प्राहार बनवाकर अनेक श्रमणों, माहनों, भिक्षुओं, यात्रियों और पथिकों को देते हुए एवं शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान, पोषधोपवास आदि यावत् (तप द्वारा आत्मा को भावित करते हुए) अपना जीवनयापन करू गा, ऐसा कहकर जिस दिशा से आया था, वापस उसी ओर लौट गया। प्रदेशो द्वारा कृत राज्यव्यवस्था २७५-तए णं से पएसी राया कल्लं जाव तेयसा जलंते सेयवियापामोक्खाई सत्त गामसहस्साइं चत्तारि भाए करेइ, एगं भागं बलवाहणस्स दलह जाव कूडागारसालं करेइ, तत्थ णं बहूहि पुरिसेहिं जाव उवक्खडावेत्ता बहूणं समण जाव परिभाएमाणे विहरइ। २७४–तत्पश्चात् प्रदेशी राजा ने अगले दिन यावत् जाज्वल्यमान तेजसहित सूर्य के प्रकाशित होने पर सेयविया प्रभृति सात हजार ग्रामों के चार भाग किये। उनमें से एक भाग बल-वाहनों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy