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________________ 202] [राजप्रश्नीयसूत्र दिया यावत् कुटाकारशाला का निर्माण कराया / उसमें बहुत से पुरुषों को नियुक्त कर यावत् भोजन बनवाकर बहुत से श्रमणों यावत् पथिकों को देते हुए अपना समय बिताने लगा। २७५-तए णं से पएसी राया समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे० विहर। जप्पमिदं च णं पएसी राया समणोवासए जाए तप्पभिई च णं रज्जं च, रच, बलं च, वाहणं च, कोडागारं च, पुरं च, अंतेउरं च, जणवयं च, अणाढायमाणे यावि विहरति / प्रदेशी राजा अब श्रमणोपासक हो गया और जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता होता हुआ धार्मिक आचार-विचारपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा। जबसे वह प्रदेशी राजा श्रमणोपासक हुआ तब से राज्य, राष्ट्र, बल, वाहन, कोठार, पुर, अन्तःपुर और जनपद के प्रति भी उदासीन रहने लगा। सूर्यकान्ता रानी का षड्यंत्र २७६-तए णं तीसे सुरियकताए देवीए इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-जप्पमिई च णं पएसी राया समणोवासए जाए तप्पभिई च णं रज्जं च रट्ट जाब अंतेउरं च ममं जणवयं च प्रणाढायमाणे विहरइ; तं संयं खलु मे पएसि रायं केवि सत्थप्पोएण वा अग्गिप्पग्रोएण वा मंतप्पप्रोगेण वा विसप्पप्रोगेण वा उद्दवेत्ता सूरियकंतं कुमारं रज्जे ठवित्ता सयमेव रज्जसिरि कारेमाणोए पालेमाणीए विहरित्तए ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहिता सूरियकंतं कुमारं सद्दावेइ, सहावित्ता एवं वयासी जप्पभिई च णं पएसी राया समणोवासए जाए तप्पभियं च णं रज्जं च जाव अंतेउरं च णं जणवयं च माणुसस्ए य कामभोगे प्रणाढायमाणे विहरइ, तं सेयं खलु तव पुत्ता? पएसि रायं केणइ सत्थप्पयोगेण वा जाव उद्दवित्ता सयमेव रज्जसिरिं कारेमाणे पालेमाणे विहरित्तए / तए णं सूरियकते कुमारे सूरियकताए देवीए एवं वृत्ते समाणे सूरियकताए देवीए एयम→ णो प्राढाइ नो परियाणाइ, तुसिणीए संचिट्ठइ / तए णं तीसे सूरियकताए देवीए इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था—मा णं सरियकते कुमारे पएसिस्स रन्नो इमं रहस्सभेयं करिस्सइ त्ति कटु पएसिस्स रण्णो छिद्दाणि य मम्माणि य रहस्साणि य विवराणि य अंतराणि य पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरइ। २७६--राजा प्रदेशी को राज्य प्रादि के प्रति उदासीन देखकर सूर्यकान्ता रानी को यह और इस प्रकार का प्रान्तरिक यावत् विचार उत्पन्न हुआ कि-जब से राजा प्रदेशी श्रमणोपासक हुआ है, उसी दिन से राज्य, राष्ट्र यावत् अन्तःपुर, जनपद और मुझसे विमुख हो गया है / अतः मुझे यही उचित है कि शस्त्रप्रयोग, अग्निप्रयोग, मंत्रप्रयोग अथवा विषप्रयोग द्वारा प्रदेशी राजा को मारकर और सूर्यकान्त कुमार को राज्य पर आसीन करके अर्थात् राजा बनाकर स्वयं राज्यलक्ष्मी का भोग करती हुई, प्रजा का पालन करती हुई आनन्दपूर्वक रहूँ। ऐसा उसने विचार किया। विचार करके सूर्यकान्त कुमार को बुलाया और बुलाकर अपनी मनोभावना बताई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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