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________________ 16 ] [ বালসহনীযঙ্গ १२--एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे जंबुद्दीवे दीवे मारहे वासे आमलकप्पाए नगरीए बहिया अंबसालवणे चेइए अहापडिरूवं उम्गहं उम्मिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तं गच्छह णं तुम्हे देवाणुप्पिया ! जंबुद्दीवं दीवं मारहं वासं प्रामलकप्पं गरि अंबसालवणं चेइयं समणं भगवं महावोरं तिक्खुत्तो पायाहिण पयाहिणं करेह, करेत्ता बंदह णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता साइं साई नामगोयाई साहेह, साहित्ता समणस्स भगवनो महावीरस्स सवओ समंता जोयणपरिमंडलं जं किंचि तणं वा पत्तं वा कटुवा सक्करं वा असुई वा अचोक्खं वा पूइयं दुग्भिगन्धं तं सव्वं प्राणिय प्राणिय एगते एडेह, एडेत्ता–णच्चोदगंणाइमट्टियं पविरलपप्फुसियं रयरेणविणासणं दिव्वं सुरभिगंधोदयवासं वासह, वासिता णिहयरयं णटरयं भट्टरयं उवसंतरयं पसंतरयं करेह, करित्ता कुसुमस्स जाणुस्सेहपमाणमित्तं प्रोहि वासं वासह, वासित्ता जलयथलय भासुरप्पभूयस्स विट्ठाइस्स दसद्धवष्णस्स कालागुरु-पवरकुन्दुरुषक-तुरुक्क-धूव-मघमघंत-गंधुद्धयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूतं दिव्वं सुरवराभिगमणजोगं करेह, कारवेह, करित्ता य कारवेत्ता य खिप्पामेव एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। १२–हे देवानुप्रियो ! बात यह है कि यथाप्रतिरूप अवग्रह को ग्रहण करके संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए श्रमण भगवान् महावीर जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भरत क्षेत्रवर्ती आमलकल्पा नगरी के बाहर आम्रशालवन चैत्य में विराजमान हैं। _अतएव हे देवानुप्रियो ! तुम जाओ और जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित आमलकल्पा नगरी के बाहर आम्रशालवन चैत्य में विराजमान श्रमण भगवान महावीर की दक्षिण दिशा से प्रारंभ करके तीन बार प्रदक्षिणा करो। प्रदिक्षणा करके वंदना, नमस्कार करो। वंदना, नमस्कार करके तुम अपने-अपने नाम और गोत्र उन्हें कह सुनायो। तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर के विराजने के ग्रासपास चारों ओर एक योजन प्रमाण गोलाकार भूमि में घास, पत्ते, काष्ठ, कंकड़-पत्थर, अपवित्र, मलिन, सड़ी-गली दुर्गन्धित वस्तुओं को अच्छी तरह से साफ कर दूर एकान्त स्थान में ले जाकर फेंक दो। इसके अनन्तर उस भूमि को पूरी तरह से साफ स्वच्छ करके इस प्रकार से दिव्य सरभि-सगंधित गंधोदक की वर्षा करो कि जिसमें जल अधिक न बरसे, कीचड़ न हो। रि रिमझिम विरल रूप में नन्हीं-नहीं बूदें बरसें और धूल मिट्टी नष्ट हो जाये / इस प्रकार की वर्षा करके उस स्थान को निहितरज, नष्टरज, भ्रष्टरज, उपशांतरज, प्रशांतरज वाला बना दो। जलवर्षा करने के अनन्तर उस स्थान पर सर्वत्र एक हाथ उत्सेध---ऊँचाई प्रमाण भास्वर चमकीले जलज और स्थलज पंचरंगे रंग-बिरंगे सुगंधित पुष्पों की प्रचुर परिमाण में इस प्रकार से बरसा करो कि उनके वृन्त (उड़ियाँ) नीचे की ओर और पंखुड़ियाँ चित्त--ऊपर की ओर रहें / पुष्पवर्षा करने के बाद उस स्थान पर अपनी सुगंध से मन को आकृष्ट करने वाले काले अगर, श्रेष्ठ कुन्दुरुष्क तुरुष्क (लोभान) और धूप को जलाप्रो कि जिसकी सुगंध से सारा वातावरण मघमघा जाये—महक जाये, श्रेष्ठ सुगंध-समूह के कारण वह स्थान गंधवट्टिका-गंध की गोली के समान बन जाये, दिव्य सुरवरों-उत्तम देवों के अभिगमन योग्य हो जाये, ऐसा तुम स्वयं करो और दूसरों से करवाओ। यह करके और करवा कर शीघ्र मेरी आज्ञा वापस मुझे लौटायो अर्थात् आज्ञानुसार कार्य हो जाने की मुझे सूचना दो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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