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________________ सूर्याभदेव की आभियोगिक देवों को आज्ञा ] [15 १०-तत्पश्चात् उस सूर्याभ देव के मन में इस प्रकार का यह आध्यात्मिक अर्थात् आन्तरिक, चिन्तित, प्रार्थित प्राप्त करने योग्य, इष्ट और मनोगत-मन में रहा हुअा (मानसिक) संकल्प उत्पन्न हुआ। ११--सेयं खलु मे समणे भगवं महावीरे जम्बुद्दोवे दोवे भारहे वासे पामलकप्पाए णयरीए बहिया अम्बसालवणे चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति, तं महाफलं खलु तहारूवाणं भगवन्ताणं णाम-गोयस्स वि सवणयाए किमङ्ग पुण अभिगमणवन्दण णमंसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए ? एगस्सवि पारियस्स धम्मियस्स सुक्यणस्स सवणयाए किमङ्ग पुण विउलस्स अट्टस्स गहणयाए ? तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वदामि मंसामि सक्कारेमि सम्मामि कल्लाणं मङ्गलं देवयं चेतियं पज्जुवासामि, एयं मे पेच्चा हियाए सुहाए खमाए हिस्सेयसाए प्राणुगामियत्ताए भविस्सति त्ति कटु एवं संपेहेइ, एवं संपेहित्ता प्राभिप्रोगे देवे सद्दावेह सद्दावित्ता एवं वयासी ११-जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में स्थित प्रामलकल्पा नगरी के बाहर आम्रशालवन चैत्य में यथाप्रतिरूप-साधु के योग्य-अवग्रह को लेकर सयम और तप से प्रात्मा को भावित करते हुए श्रमण भगवान् महावीर विराजमान हैं। मेरे लिये श्रेय रूप हैं / जब तथारूप भगवन्तों के मात्र नाम और गोत्र के श्रवण करने का ही महाफल होता है तो फिर उनके समक्ष जाने का, उनको बंदन करने का, नमस्कार करने का, उनसे प्रश्न पूछने का और उनकी उपासना करने का प्रसंग मिले तो उसके विषय में कहना ही क्या है ? आर्य पुरुष के एक भी धार्मिक सुवचन सुनने का ही जब महाफल प्राप्त होता है तब उनके पास से विपुल अर्थ-उपदेश ग्रहण करने के महान् फल की तो बात ही क्या है ! इसलिए मैं जाऊँ और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन करू, नमस्कार करू, उनका सत्कार-सम्मान करूँ और कल्याणकारी होने से कल्याण रूप, सब अनिष्टों का उपशमन करने वाले होने से मंगलरूप, त्रैलोक्याधिपति होने से देवरूप और सुप्रशस्त ज्ञान-केवलज्ञान वाले होने से चैत्य स्वरूप उन भगवान् की पर्युपासना करूं। ये (श्रमण भगवान महावीर की पर्युपासना) मेरे लिये अनुगामी रूप से परलोक में हितकर, सुखकर, क्षेमकर-शांतिकर, निश्रेयस्कर-कल्याणकर-मोक्ष प्राप्त कराने वाली होगी, ऐसा उसने (सूर्याभदेव ने) विचार किया। विचार करके अपने आभियोगिक देवों को बुलाया और बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा / विवेचन--टीकाकार खम-क्षम का अर्थ संगति बताते हैं क्षमाय संगतत्वाय (रायपसेणइय पृ. 102 आगमोदय समिति)। क्रोध की उपशांति को क्षमा कहते हैं और क्रोध की उपशांति सुखशांति-कल्याण करने वाली होने से यहाँ खमाए का क्षेमकर, शान्तिकर यह अर्थ लिया है। प्राभियोगिक देव-जैसे हमारे यहाँ घरेल काम करने के लिये वेतनभोगी भृत्य-नौकर होते हैं, उसी प्रकार की स्थिति देवलोक में आभियोगिक देवों की है / वे अपने स्वामी देव की आज्ञा का पालन करने के लिये नियुक्त रहते हैं / अर्थात् अपने स्वामी देव की आज्ञा का पालन करने वाले भृत्य-सेवक स्थानीय देवों को आभियोगिक देव कहा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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