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________________ आभियोगिक देवों द्वारा आज्ञा-पालन ] [17 विवेचन–प्राचीन काल में भृत्यवर्ग का समाज में सम्मानपूर्ण स्थान था, यह बात जैन शास्त्रों के वर्णन से स्पष्ट है। उन्हें कौटुम्बिक पुरुष–परिवार का सदस्य समझा जाता था और सम्राट से लेकर सामान्य जन तक उन्हें 'देवानुप्रिय' जैसे शिष्टजनोचित शब्दों से संबोधित करते थे। ऐसे शब्दप्रयोगों से यह भी ज्ञात होता है कि उस समय अपने स्तर से भी कम स्तर वाले व्यक्तियों के प्रति शिष्ट सभ्य, सुसंस्कृतजनोचित वचन व्यवहार की परंपरा थी। पाभियोगिक देवों द्वारा आज्ञापालन : १३--तए णं ते प्राभियोगिका देवा सूरियाभेणं दे वेणं एवं वृत्ता समाणा हद्वतु जाव [चित्तमाणंदिया, पोइमणा, परमसोमणस्सिया, हरिसवसविसम्पमाण] हियया करयलपरिम्गहियं दसनह सिरसावत्तं मत्थए प्रजलि कट्ट 'एवं देवो ! तहति' प्राणाए विणएणं बयणं पडिसुणंति, एवं द वो तहत्ति' प्राणाए विणएणं वयणं पडिसुणेत्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसिभागं प्रवक्कमति, उत्तरपुरस्थिमं दिसिभागं अवक्कमित्ता उब्वियसमुग्घाएणं समोहण्णंति, समोहणित्ता संखेज्जाई जोयणाई दण्डं निस्सिरंति, तं जहा–रयणाणं वयराणं वेरुलियाणं लोहियक्खाणं मसारगल्लाणं हंसगन्माणं पुलगाणं सोगंधियाणं जोईरसाणं अंजणाणं अंजणपुलगाणं रययाणं जायरूवाणं अङ्काणं फलिहाणं रिद्वाणं महाबायरे पुग्गले परिसाडंति, परिसाडित्ता प्रहासुहमे पुग्गले परियायंति, परियाइत्ता दोच्चं पि वेब्धिय-समुग्धाएणं समोहणंति, समोहणित्ता उत्तरवेउब्बियाई रूवाई विउध्वंति, विउवित्ता ताए उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए जवणाए सिग्याए उधूयाए दिवाए देवगईए तिरियं असंखेज्जाणं दोवसमुद्दाणं मज्झमझेणं वीईवयमाणे जेणेव जंबुद्दोवे दीवे, जेणेव भारहे वासे, जेणेव प्रामलकप्पा गयरी, जेणेव अंबसालवणे चेतिए, जेणेव समणे भगव महावीरे तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीर तिक्खत्तो प्रायाहिणपयाहिणं करेंति, वंदति नमसंति, बंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासि'अम्हे णं भंते ! सूरियाभस्स दे वस्स प्राभियोगा देवा देवाणुप्पियाणं वदामो णमंसामो सक्कारेमो सम्माणेओ कल्लाणं मगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामो। १३-तत्पश्चात् वे आभियोगिक देव सूर्याभदेव की इस आज्ञा को सुन कर हर्षित हुए, सन्तुष्ट हुए, यावत् (आनंदित चित्त बाले हुए, उनके मन में प्रीति उत्पन्न हुई, परम प्रसन्न हुए और हर्षातिरेक से उनका) हदय विकसित हो गया। उन्होंने दोनों हाथों को जोड मूकलित दस नखों के द्वारा किये गये सिरसावर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके 'हे देव-स्वामिन् ! आपकी आज्ञा प्रमाण' कहकर विनयपूर्वक आज्ञा स्वीकार की। 'हे देव ! ऐसा ही करेंगे' इस प्रकार से सविनय आज्ञा स्वीकार करके उत्तर-पूर्व दिग्भाग (ईशान कोण) में गये। ईशान कोण में जाकर वैक्रिय समुद्घात किया। वैक्रिय समुद्घात करके संख्यात योजन का रत्नमय दंड बनाया / रत्नों के नाम इस प्रकार हैं--(१) कर्केतन रत्न (2) वज्र-रत्न (3) वैडूर्य रत्न (4) लोहिताक्ष रत्न (5) मसारगल्ल रत्न (6) हंसगर्भ रत्न (7) पुलक रत्न (8) सौगन्धिक रत्न (6) ज्योति रत्न (10) अंजनरत्न (11) अंजनपुलक रत्न (12) रजत रत्न (13) जातरूप रत्न (14) अंक रत्न (15) स्फटिक रत्न (16) रिष्ट रत्न / इन रत्नों के यथा बादर (असार-अयोग्य) पुद्गलों को अलग किया और फिर यथासूक्ष्म (सारभूत) पुद्गलों को ग्रहण किया, ग्रहण करके पुनः दूसरी बार वैक्रिय समुद्घात करके उत्तर वैक्रिय रूपों की विकुर्वणा की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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