________________ तज्जीव-तच्छरीरवाद खंडन-मंडन] [ 187 हे देवानुप्रियो ! आप जाओ और स्नान, बलिकर्म आदि करके शीघ्र आ जायो / तब तक मैं आप लोगों के लिए भोजन तैयार करता हैं / ऐसा कहकर उसने अपनी कमर कसी और कुल्हाड़ी लेकर सर बनाया, सर से अरणि-काष्ठ को रगड़कर अाग की चिनगारी प्रगट की। फिर उसे धौंक कर सुलगाया और फिर उन लोगों के लिए भोजन बनाया। . __इतने में स्नान आदि करने गये पुरुष वापस स्नान करके, बलिकर्म करके यावत् प्रायश्चित्त करके उस भोजन बनाने वाले पुरुष के पास आ गये। तत्पश्चात् उस पुरुष ने सुखपूर्वक अपने-अपने आसनों पर बैठे उन लोगों के सामने उस विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य रूप चार प्रकार का भोजन रखा-परोसा / वे उस विपुल अशन आदि रूप चारों प्रकार के भोजन का स्वाद लेते हुए, खाते हुए यावत् विचरने लगे। भोजन के बाद आचमनकुल्ला आदि करके स्वच्छ, शुद्ध होकर अपने पहले साथी से इस प्रकार बोले- हे देवानुप्रिय ! तुम जड़अनभिज्ञ, मूढ-मूर्ख (विवेकहीन), अपंडित (प्रतिभारहित), निविज्ञान (निपुणतारहित) और अनुपदेशलब्ध (अशिक्षित) हो, जो तुमने काठ के टुकड़ों में आग देखना चाही। इसी प्रकार की तुम्हारी भी प्रवृत्ति देखकर मैंने यह कहा-हे प्रदेशी ! तुम इस तुच्छ कठियारे से भी अधिक मूढ़ हो कि शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके जीव को देखना चाहते हो। २६०-तए णं पएसी राया केसिकुमारसमणं एवं वयासी जुतए णं भंते ! तुम्भ इय छेयाणं दक्खाणं बुद्धाणं कुसलाणं महामईणं विणीयाणं विष्णाणपत्ताणं उवएसलद्धाणं अहं इमोसाए महालियाए महच्च परिसाए मज्झे उच्चावएहि पाउसेहि प्राउसितए ? उच्चावयाहि उद्धसणाहि उद्ध सित्तए ? एवं निभंछणाहि निब्भंच्छणित्तए ? निच्छोडपाहि निच्छोडणत्तए ? २६०-कुमारश्रमण केशीस्वामी की उक्त बात (उदाहरण) को सुनकर प्रदेशी राजा ने केशीस्वामी से कहा-भंते ! आप जैसे छेक--अवसरज्ञ, दक्ष-चतुर, बुद्ध-तत्त्वज्ञ, कुशल-कर्तव्याकर्तव्य के निर्णायक, बुद्धिमान्, विनीत--विनयशील, विशिष्ट ज्ञानी, सत्-असत् के विवेक से संपन्न (हेयोपादेय को परीक्षा करने वाले), उपदेशलब्ध-गुरु से शिक्षा प्राप्त पुरुष का इस अति विशाल परिषद् के बीच मेरे लिये इस प्रकार के निष्ठुर-आक्रोशपूर्ण शब्दों का प्रयोग करना, अनादरसूचक शब्दों से मेरी भर्त्सना करना, अनेक प्रकार के अवहेलना भरे शब्दों से मुझे प्रताडित करना, धमकाना क्या उचित है ? २६१–तए णं केसी कुमारसमणे पएसि रायं एवं बयासीजाणासि णं तुमं पएसी! कति परिसानो पण्णत्तानो ? जाणामि, चत्तारि परिसानो पण्णतामो, तं जहा-खत्तियपरिसा, गाहावइपरिसा, माहणपरिसा, इसिपरिप्ता। जाणासि णं तुम पएसी राया ! एयासि चउण्हं परिसाणं कस्स का दंडणीई पण्णता ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org