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________________ 114 ] [राजप्रश्नीयसूत्र देव हाथों में उत्पल यावत् शतपत्र सहस्रपत्र कमलों को लेकर, कितने ही हाथों में कलश यावत् धूप दोनों को लेकर हर्षित सन्तुष्ट यावत् हर्षातिरेक से विकसितहृदय होते हुए इधर-उधर चारों ओर दौड़-धूप करने लगे। विवेचन---प्रस्तुत सूत्र में उल्लास और प्रमोद के समय होने वाली मानसिक वृत्तियों एवं हर्षातिरेक के कारण की जाने वाली प्रवृत्तियों का यथार्थ चित्रण किया है। उपर्युक्त वर्णन में प्रदर्शित चेष्टाओं के चित्र हमें त्यौहारों-मेलों आदि के अवसरों पर देखने को मिलते हैं, जब बालक से लेकर वृद्ध जन तक सभी अपने-अपने पद और मर्यादा को भूलकर मस्ती में रम जाते हैं। १९३--तए णं तं सरियाभं देवं चत्तारि सामाणियसाहस्सोमो जाव' सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ अण्णे य बहवे सरियाभरायहाणिवत्यव्वा देवा य देवीप्रो य महया महया इंदाभिसेगेणं अभिसिचंति, अभिसिंचित्ता पत्तेयं-पत्तेयं करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं वयासी जय जय नंदा ! जय जय भद्दा ! जय जय नंदा ! भदं ते, प्रजियं जिणाहि, जियं च पालेहि, जियमझे वसाहि, इंदो इव देवाणं, चंदो इव ताराणं, चमरो इव असुराणं, धरणो इव नागाणं, भरहो इव मणुयाणं बहूई पलिप्रोवमाई, बहूइं सागरोवमाई बहूई पलिपोक्मसागरोवमाई, चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव प्रायरक्खदेवसाहस्सीणं सरियाभस्स विमाणस्स अन्नेसि च बहूर्ण सरियाभविमाणवासीणं देवाण य देवीण य प्राहेवच्च जाव (पोरेवच्चं-सामितं-भट्टित्तं-महत्तरगत्तं-प्राणाईसरसे. णावच्च) महया महयाहयनट्ट० कारेमाणे पालेमाणे विहराहि त्ति कटु जय जय सदं पति / १६३–तत्पश्चात् चार हजार सामानिक देवों यावत् सपरिवार चार अग्रमहिषियों, तीन परिषदानों, सात अनीकाधिपतियों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा दूसरे भी बहुत से सूर्याभ राजधानी में वास करने वाले देवों और देवियों ने सूर्याभदेव को महान् महिमाशाली इन्द्राभिषेक से अभिषिक्त किया। अभिषेक करके प्रत्येक ने दोनों हाथ जोड़कर आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार कहा हे नन्द ! तुम्हारी जय हो, जय हो ! हे भद्र ! तुम्हारी जय हो, जय हो ! तुम्हारा भद्रकल्याण हो ! हे जगदानन्दकारक ! तुम्हारी बारंबार जय हो ! तुम न जीते हुओं को जीतो और विजितों (जीते हुओं) का पालन करो, जितों-शिष्ट प्राचार वालों के मध्य में निवास करो। देवों में इन्द्र के समान, ताराओं में चन्द्र के समान, असुरों में चमरेन्द्र के समान, नागों में धरणेन्द्र के समान, मनुष्यों में भरत चक्रवर्ती के समान, अनेक पल्योपमों तक, अनेक सागरोपमों तक, अनेकअनेक पल्योपमों-सागरोपमों तक, चार हजार सामानिक देवों यावत् सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों तथा सूर्याभ विमान और सूर्याभ विमानवासी अन्य बहुत से देवों और देवियों का बहुत-बहुत अतिशय रूप से आधिपत्य (शासन) यावत् (पुरोवर्तित्व, (प्रमुखत्व) भर्तृत्व, (पोषकत्व) महत्तरकत्व, एवं आज्ञेश्वरत्व, सेनापतित्व) करते हुए, पालन करते हुए विचरण करो। इस प्रकार कहकर पुनः जय जय कार किया / 1. देखें सूत्र संख्या-७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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