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________________ नाटयाभिनयों का प्रदर्शन ] ६६-तदनन्तर चन्द्रमण्डल, सूर्यमण्डल, नागमण्डल, यक्षमण्डल, भूतमण्डल, राक्षसमण्डल, महोरगमण्डल और गन्धर्वमण्डल की रचना से युक्त अर्थात् इन इनके मण्डलों के भावों का दर्शक मण्डलप्रविभक्ति नामक नाट्य अभिनय प्रदर्शित किया / ६७-'उसभमंडलप० च सीहमंडलप० च हयविलंबियं गयवि० हयविलसियं गयविलसियं मत्तहयविलसियं मत्तगजविलसियं मत्सहयविलंबियं मत्तगयविलंबियं दुतविलम्बियं णामं पट्टविहं जवदंसेंति / ९७-तत्पश्चात् वृषभमण्डल, सिंहमण्डल की ललित गति अश्व गति, और गज की विलम्बित गति, अश्व और हस्ती की विलसित गति. मत्त अश्व और मत्त गज की विलसित गति, मत्त अश्व की विलम्बित गति, मत्त हस्ती की विलम्बित गति की दर्शक रचना से युक्त द्रुतविलम्बित प्रविभक्ति नामक दिव्य नाट्यविधि का प्रदर्शन किया। १८-सागरपविभत्ति च नागरप० च सागर-नागर प० च णामं उवदंसेंति / ६८-इसके बाद सागर प्रविभक्ति, नगर प्रविभक्ति अर्थात् समुद्र और नगर सम्बन्धी रचना से युक्त सागर-नागर-प्रविभक्ति नामक अपूर्व नाट्यविधि का अभिनय दिखाया। 88-गंदाप० च चंपाप० च नन्दा-चंपाप० च णामं उवदंसेति / ९९–तत्पश्चात् नन्दाप्रविभक्ति–नन्दा पुष्करिणी को सुरचना से युक्त, चम्पा प्रविभक्ति --- चम्पक वृक्ष की रचना से युक्त नन्दा-चम्पाप्रविभक्ति नामक दिव्यनाट्य का अभिनय दिखाया। १००-मच्छंडाप० च मयरंडाप० च जारप० च मारप० च मच्छडा-मयरंडा-जारा-माराप० च णाम उवदंसेति / १००-तत्पश्चात् मत्स्याण्डक, मकराण्डक, जार, मार की आकृतियों की सुरचना से युक्त मत्स्याण्ड-मकराण्ड-जार-मार प्रविभक्ति नामक दिव्यनाट्यविधि दिखलाई / १०१--'क' त्ति ककारप० च, 'ख' ति खकारप० च, 'ग' त्ति गकारप० च, 'घ'त्ति घकारप० च, '' तिङकारप० च, ककार-खकार-गकार-घकार-कारप० च णाम उवदंसेंति, एवं चकारवग्गो पि टकारवग्गो बि तकारवग्गो वि पकारवग्गो वि। 1. किसी-किसी प्रति में निम्न प्रकार का पाठ है - उसभल लियविक्कंतं सीहल लियविक्कतं हय विलंबियं गयवि० हयविलसियं गयविलसियं मत्तय विलसियं मत्तगजबिलसियं मत्तहयवि. मत्तगयवि. दुयविलम्बियं णामं पट्टविहं उवदंसेंति / इसके बाद वृषभ-बैल को ठुमकती हुई ललित गति, सिंह की ठुमकती हुई ललित गति, अश्व की विलंबित गति, गज की विलंबित गति, मत्त अश्व की विलसित गति, मत्त गज की विलसित गति, मत्त अश्व की विलंबित गति, मत्त गज की विलंबित गति की दर्शक रचनावाली द्रतविलंबित नामक नाटयविधि को दिखाया। 2. "वि.' पद से 'विलंबित' पद ग्रहण करना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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