________________ सूर्याभदेव द्वारा सिद्धायतन के देवच्छंदक आदि का प्रमार्जन] [121 जेणेव पहरणकोसे चोप्पालए तेणेव उवागच्छइ, लोमहत्थगं परामुसइ पहरणकोसं चोप्पालं लोमहत्थएणं पमज्जइ, दिव्वाए दगधाराए सरसेणं गोसीसचंदणेणं दलेइ, पुष्फारुहणं आसत्तोसत्त० धूवं दलयइ। जेणेव सभाए सुहम्माए बहुमज्झदेसभाए, जेणेव मणिपेढिया जेणेव देवसयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, लोमहत्थगं परामसह, देवसयणिज्जं च मणिपेढियं च लोमहत्थएणं पमज्जइ जाव धूवं दलय। जेणेव उववायसभाए दाहिणिल्ले दारे तहेव अभिसेयसभा सरिसं जाव पुरथिमिल्ला गंदा पुक्खरिणी जेणेव हरए तेणेव उवागच्छइ, तोरणे य तिसोवाणे य सालभंजियानो य वालरूवए य तहेव / जेणेव अभिसेयसभा, तेणेव उवागच्छइ तहेव सोहासणं च मणिपेढियं च, सेसं तहेव प्राययणसरिसं जाव पुरथिमिल्ला गंदा पुक्खरिणी / जेणेव प्रलंकारियसभा तेणेव उवागच्छइ जहा अभिसेयसभा तहेव सव्वं / ___ जेणेव ववसायसभा तेणेव उवागच्छइ तहेव लोमहत्थयं परामुसति, पोत्थयरयणं लोमहत्थएणं पमज्जइ, पमज्जित्ता दिवाए दगधाराए अग्गेहि बरेहि य गंधेहि मल्लेहि य अच्चेति मणिपेढियं सीहासणं च सेसं तं चेव पुरथिमिल्ला नंदा पुक्खरिणी जेणेव हरए तेणेव उवागच्छइ तोरणे य तिसोवाणे य सालभंजियानो य वालरूवए य तहेव / जेणेव बलिपीढं तेणेव उवागच्छइ बलिविसज्जणं करेइ, प्राभिप्रोगिए देवे सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी २००–सिद्ध भगवन्तों को वन्दन नमस्कार करने के पश्चात् सूर्याभदेव देवच्छन्दक और सिद्धायतन के मध्य देशभाग में आया / वहाँ आकर मोरपीछी उठाई और मोरपीछी से सिद्धायतन के अति मध्यदेशभाग को प्रमाजित किया (पूजा, झाड़ा-बुहारा) फिर दिव्य जल-धारा से सींचा, सरस गोशीर्ष चन्दन का लेप करके हाथे लगाये, मांडने मांडे यावत् हाथ में लेकर पुष्पपुज बिखेरे / पुष्प बिखेर कर धूप प्रक्षेप किया--और फिर सिद्धायतन के दक्षिण द्वार पर आकर मोरपीछी ली और उस मोरपीछी से द्वारशाखाओं पुतलियों एवं व्यालरूपों को प्रमाजित किया, दिव्य जलधारा सींची, सरस गोशीर्ष चन्दन से चचित किया, सन्मुख धूप जलाई, पुष्प चढ़ाये, मालायें चढ़ाई, यावत् आभूषण चढ़ाये / यह सब करके फिर ऊपर से नीचे तक लटकती हुई गोल-गोल लम्बी मालाओं से विभूषित किया। धूपप्रक्षेप करने के बाद जहाँ दक्षिणद्वारवर्ती मुखमण्डप था और उसमें भी जहाँ उस दक्षिण दिशा के मुखमण्डप का अतिमध्य देशभाग था, वहाँ आया और मोरपीछी ली, मोरपीछी को लेकर उस अतिमध्य देशभाग को प्रमाजित किया-बुहारा, दिव्य जलधारा सींची, सरस गोशीर्ष चन्दन से चचित किया-हाथे लगाये, मांडने मांडे तथा ग्रहीत पुष्प पुजों को बिखेर कर उपचरित किया यावत् धूपक्षेप किया। - इसके बाद उस दक्षिणदिग्वर्ती मुखमण्डप के पश्चिमी द्वार पर आया, वहाँ पाकर मोरपीछी ली। उस मोरपीछी से द्वारशाखाओं, पुतलियों एवं व्याल (सर्प) रूपों को पूजा, दिव्य जलधारा से सींचा, सरस गोशीर्ष चन्दन से चचित किया। धूपक्षेप किया, पुष्प चढ़ाये यावत् प्राभूषण चढ़ाये / लम्बी-लम्बी गोल मालायें लटकाईं। कचग्रहवत् विमुक्त पुष्पपुजों से उपचरित किया, धूप जलाई। Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org