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________________ सूर्याभदेव की उदघोषणा एवं आदेश [ 23 उवागच्छति, उवागच्छित्ता तं मेघोघरसितगंभीरमहरसई जोयणपरिमंडलं सुस्सरं घंटं तिक्खुत्तो उल्लालेति / तए णं तोसे मेधोधरसितगंभीरमहरसदाए जोयणपरिमंडलाए सुस्सराए घंटाए तिक्खुत्तो उल्लालियाए समाणीए से सूरियाभे विमाणे पासायविमाणिक्खुडावडियसद्दघंटापडिसुयासयसहस्ससंकुले जाए याऽवि होत्था। २०–तदनन्तर सूर्याभदेव द्वारा इस प्रकार से आज्ञापित हुआ वह पदात्यनीकाधिपति देव सूर्याभदेव की इस प्राज्ञा को सुनकर हृष्ट-तुष्ट यावत् प्रफुल्ल-हृदय हुआ और 'हे देव ! ऐसा ही होगा' कहकर विनयपूर्वक आज्ञावचनों को स्वीकार करके सूर्याभ विमान में जहाँ सुधर्मा सभा थी और उसमें भी जहाँ मेघमालावत् गम्भीर मधुर ध्वनि करने वाली योजन प्रमाण गोल सुस्वर घंटा थी, वहाँ आकर मेघमाला जैसी गम्भीर और मधुरध्वनि करने वाली उस एक योजन प्रमाण गोल सुस्वर घंटा को तीन बार बजाया। तब उस मेघमालासदृश गम्भीर मधुर ध्वनि करने वालो योजन प्रमाण गोल सुस्वर घंटा के तीन बार बजाये जाने पर उसकी ध्वनि से सूर्याभ विमान के प्रासादविमान आदि से लेकर कोने-कोने तक के एकान्तशांत स्थान लाखों प्रतिध्वनियों से गूंज उठे। विवेचन अधिक से अधिक बारह योजन की दूरी से आया हुआ शब्द ही श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया जा सकता है। मगर सूर्याभ विमान तो एक लाख योजन विस्तार वाला है / ऐसी स्थिति में घण्टा का शब्द सर्वत्र कैसे सुनाई दिया? इस प्रश्न का समाधान मूलपाठ के अनुसार ही यह है कि घंटा के ताड़न करने पर उत्पन्न हुए शब्द-पुद्गलों के इधर-उधर टकराने से तथा दैवी प्रभाव से, लाखों प्रतिध्वनियाँ उत्पन्न हो गई। उनसे समग्र सूर्याभ विमान व्याप्त हो गया और विमानवासी सब देवों-देवियों ने शब्द श्रवण कर लिया। २१–तए णं तेसि सरियाभविमाणवासिणं बहूणं वेमाणियाणं देवाण य दवीण य एगंतरइपसत्तनिच्चप्पमत्तविसयसुहमुच्छियाणं सुसरघंटारवविउलबोलतुरियचवलपडिबोहणे कए समाणे घोसणकोउहल-दिनकन्नएगग्गचित्त-उवउत्तमाणसाणं से पायत्ताणीयाहिवई देवे तंसि घंटारवंसि णिसंतपसंतंसि महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणे उग्घोसेमाणे एवं वदासी-- हंद ! सुणंतु भवंतो सूरियाभविमाणवासिणो बहवे वेमाणिया देवा य देवीमो य सरियाभभविमाणवइणो वयणं हियसुहत्थं प्राणवेइ णं भो ! सरियाभे देवे, गच्छइ णं भो ! सरियामे देवे जंबुद्दीव दीव भारहं वासं प्रामलकप्यं नर अंबसालवणं चेइयं समणं भगव महावीरं अभिव दए; तं तुम्भेऽवि णं देवाणुपिया! सविड्ढीए अकालपरिहीणा चेव सूरियामस्स देवस्स अंतियं पाउम्भवह / २१–तब उस सुस्वर घंटा की गम्भीर प्रतिध्वनि से एकान्त रूप से अर्थात् सदा सर्वदा रति-क्रिया (काम भोगों) में आसक्त, नित्य प्रमत्त, एवं विषयसुख में मूच्छित सूर्याभविमानवासी देवों और देवियों ने घंटानाद से शीघ्रातिशीघ्र प्रतिबोधित-सावधान-जाग्रत होकर घोषणा के विषय में उत्पन्न कौतूहल की शांति के लिए कान और मन को केन्द्रित किया तथा घंटारव के शांत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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