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________________ संवर्तक वायु की विकुर्वणा ] [ 16 वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव अरिहंत भगवन्तों को वन्दन-नमस्कार करते हैं / और वन्दन-नमस्कार करके अपने-अपने नाम-गोत्र कहते हैं, यह पुरातन है यावत् हे देवो! यह अभ्यनुज्ञात है। संवर्तक वायु की विकुर्वणा १५-तए णं ते आभिनोगिया देवा समणेणं भगक्या महावीरेणं एवं वत्ता समाणा हट्ट जाव' हियया समणं भगव महावीरं वंदति णमंसंति, वदित्ता णमंसित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसोभागं अबक्कमंति, प्रवक्कमित्ता वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणंति, समोहणिता संखेज्जाइं जोयणाई दडं निस्सिरंति / तं जहा-रययाणं जावर रिद्वाणं अहाबायरे पोग्गले परिसाइंति, अहाबायरे पोग्गले परिसाडित्ता दोच्चं पि वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणंति, समोहणित्ता संवट्टयवाए विउध्वंति / से जहा नामए भइयदारए सिया तरुणे बलव जुगवं जुवाणे अप्पायंके थिरग्गहत्थे दढपाणिपायपिटुतरोरुपरिणए, घणनिचियवट्टवलियखंधे, चम्मेदुगदुघणमुट्ठिसमाहयगत्ते, उरस्स बलसमन्नागए, तलजमलजुयलबाहू लवण-पवण-जवण-पमद्दणसमत्थे छए दक्खे पट्ठ कुसले मेधावी णिउणसिम्पोवगए एगं महं सलागाहत्यगं वा दंडसंपुच्छणि वा वेणुसलागिगं वा गहाय रायङ्गणं वा रायंतेपुरं वा देवकुलं वा सभं वा पर्व वा पारामं वा उज्जाणं वा अतुरियं अचवलं असंभंतं निरंतरं सुनिउणं सन्धतो समंता संपमज्जेज्जा, एवामेव तेऽवि सूरियाभस्स देवस्स प्राभिनोगिया देवा संवट्टयवाए विउव्वंति, विउम्वित्ता समणस्स भगवश्री महावीरस्स सव्वतो समंता जोयणपरिमंडलं जे किचि तणं वा पत्तं वा तहेव सव्व प्राणिय प्राणिय एगते एडेति, एडित्ता खिप्पामेव उवसमंति। तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर के इस कथन को सुनकर उन अाभियोगिक देवों ने हर्षित यावत् विकसितहृदय होकर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया / वन्दना-नमस्कार करके वे उत्तर-पूर्व दिग्भाग में गये। वहाँ जाकर उन्होंने वैक्रिय समुद्घात किया और वैक्रिय समुद्घात करके संख्यात योजन का दंड बनाया जो कर्केतन यावत् रिष्टरत्नमय था और उन रत्नों के यथाबादर (असारभूत) पुद्गलों को अलग किया / यथाबादर पुद्गलों को हटाकर दुबारा वैक्रिय समुद्घात करके, जैसे ___ कोई तरुण, बलवान, युगवान्-कालकृत उपद्रवों से रहित, युवा-युवावस्था वाला, जवान, रोग रहित-नीरोग, स्थिर पंजे वाला-जिसके हाथ का अग्रभाग कांपता न हो, पूर्णरूप से दृढ पुष्ट हाथ पैर पृष्ठान्तर-पीठ एवं पसलियों और जंघाओं बाला, अतिशय निचित परिपुष्ट मांसल गोल कंधोंवाला, चर्मेष्टक (चमड़े से वेष्टित पत्थर से बना अस्त्र विशेष), मुद्गर और मुक्कों की मार से सघन, पुष्ट सुगठित शरीर वाला, आत्मशक्ति सम्पन्न, युगपत् उत्पन्न तालवृक्षयुगल के समान सीधी लम्बी और पुष्ट भुजाओं वाला, लांघने-कूदने-वेगपूर्वक गमन एवं मर्दन करने में समर्थ, कलाविज्ञ, दक्ष, पटु, कुशल, मेधावी एवं कार्यनिपुण भृत्यदारक सीकों से बनी अथवा मूठ वाली अथवा बांस की सीकों से बनी बुहारी को लेकर राजप्रांगण, अन्तःपुर, देवकुल, सभा, प्याऊ, पाराम अथवा उद्यान को बिना किसी घबराहट चपलता सम्भ्रम और पाकुलता के निपुणतापूर्वक चारों तरफ से प्रमाणित 1. सूत्र संख्या 13 2. सूत्र संख्या 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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