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________________ 210] [राजश्नीयसूत्र २८४--इसके बाद वह दृढप्रतिज्ञ बालक बालभाव से मुक्त हो परिपक्व विज्ञानयुक्त, युवावस्थासंपन्न हो जायेगा / बहत्तर कलाओं में पंडित होगा, बाल्यावस्था के कारण मनुष्य के जो नौ अंग-दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, जिह्वा, त्वचा और मन सुप्त-से अर्थात् अव्यक्त चेतना वाले रहते हैं, वे जागृत हो जायेंगे / अठारह प्रकार की देशी भाषाओं में कुशल हो जायेगा, वह गीत का अनुरागी, गीत और नृत्य में कुशल हो जायेगा / अपने सुन्दर वेष से शृगार का आगार-जैसा प्रतीत होगा / उसकी चाल, हास्य, भाषण, शारीरिक और नेत्रों की चेष्टायें आदि सभी संगत होंगी। पारस्परिक पालाप-संलाप एवं व्यवहार में निपुण-कुशल होगा / अश्वयुद्ध, गजयुद्ध, रथयुद्ध, बाहुयुद्ध करने एवं अपनी भुजाओं से विपक्षी का मर्दन करने में सक्षम एवं भोग भोगने की सामर्थ्य से संपन्न हो जायेगा तथा साहसी ऐसा हो जायेगा कि विकालचारी (मध्यरात्रि में इधर-उधर जाने-माने में भी) भयभीत नहीं होगा / विवेचन--प्रस्तुत सूत्रगत 'बावत्तरिकलापंडिए' और 'अट्ठारसविहदेसिप्पगारभासाविसारए' इन दो पदों का विचार करते हैं / कला का अर्थ है-कार्य को भलीभांति करने का कौशल ! व्यक्ति के उन संस्कारों को सबल बनाना जो स्वयं उसके एवं सामाजिक जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक हैं। यदि व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण न हो, चारित्र का विकास न हो और संस्कृति की सुरक्षा के लिये सामाजिक तथा धार्मिक कर्तव्यों एवं दायित्वों का सम्यक् प्रकार से पालन नहीं किया जाये तो मानव का कुछ भी महत्त्व नहीं है / मानव और दानव, पशु में कुछ भी अन्तर नहीं रहेगा / यही कारण है कि प्रत्येक युग में मानव को सुसंस्कारी बनाने, शारीरिक, मानसिक दृष्टि से विकसित करने और आजीविका के प्रामाणिक साधनों की योग्यता अजित करने के लिये कलानों के शिक्षण पर विशेष ध्यान दिया जाता रहा है। यद्यपि कलाओं के विषय में प्रत्येक देश के साहित्य में विचार किया गया है, तथापि हम अपने देश की ही मुख्य धर्मपरंपराओं के साहित्य को देखें तो सर्वत्र विस्तार के साथ कलाओं का विवरण उपलब्ध है / वैदिक परंपरा के रामायण, महाभारत, शुक्रनीति, वाक्यपदीय आदि ग्रन्थों में, बौद्ध-परंपरा के ललितविस्तरा में और जैन परंपरा के समवायांगसूत्र, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ज्ञातासूत्र, औपपातिकसूत्र, कल्पसूत्र और इनकी व्याख्याओं में वर्णन किया गया है। किन्तु संख्या और नामों में अन्तर है। कहीं कलाओं की संख्या चौसठ बताई है तो क्षेमेन्द्र के कलाविलास ग्रन्थ में सौ से अधिक कलाओं का वर्णन किया है। बौद्धसाहित्य में इनकी संख्या छियासी कही है। जैनसाहित्य में पुरुष योग्य बहत्तर और महिलाओं के लिये चौसठ कलाओं का उल्लेख है। लेकिन जैनसाहित्यगत पुरुषयोग्य कलायें बहत्तर मानने की परंपरा सर्वमान्य है। जिसकी पुष्टि जनसाधारण में प्रचलित इस दोहे से हो जाती है कला बहत्तर पुरुष की, तामें दो सरदार / एक जीव की जीविका, एक जीव उद्धार / / जीवन धारण करने के लिये मानव को जैसे रोटी, कपड़ा और मकान जरूरी है, उसी प्रकार जीवन की सुरक्षा के लिये शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शुद्धि और आजीविका के साधनों की व्यवस्था, ये तीन भी आवश्यक हैं / अतएव पूर्व सूत्र में उल्लिखित बहत्तर कलाओं के नामों में ध्यान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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